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‘हिंदी दिवस’ की औपचारिकता

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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हिंदी दिवस विशेष……

‘हिंदी दिवस’ हम हर साल १४ सितंबर को मनाते हैं, क्योंकि इसी दिन १९४९ को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा बनाया था,लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि हिंदी वास्तव में भारत की राजभाषा है भी या नहीं ? यदि हिंदी राजभाषा होती तो कम से कम भारत का राज-काज तो हिंदी भाषा में चलता,पर आजकल राजकाज तो क्या,घर का काम-काज भी हिंदी में नहीं चलता। अंग्रेज की गुलामी के दिनों में फिर भी हिंदी का स्थान ऊँचा था,लेकिन आज हिंदी की हैसियत ऐसी हो गई हैजैसी किसी अछूत या दलित की होती है। संसद का कोई कानून हिंदी में नहीं बनता,सर्वोच्च न्यायालय का कोई फैसला या बहस हिंदी में नहीं होती,सरकारी काम-काज अंग्रेजी में होता है। सारे विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी अनिवार्य है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी है। छोटे-छोटे बच्चों पर भी अंग्रेजी इस तरह लदी होती है,जैसे हिरन पर घास लाद दी गई हो। बच्चे अपने माँ-बाप को भी आजकल मम्मी-डैडी कहने लगे हैं। माताजी-पिताजी शब्दों का लोप हो चुका है। ‘जी’ अक्षर उनके संबोधन से हट चुका है। भाषा से मिलनेवाले संस्कार लुप्त होते जा रहे हैं। हिंदी अखबारों और टी.वी. चैनलों को अंग्रेजी शब्दों के बोझ ने लंगड़ा कर दिया है। हर साल जो करोड़ों बच्चे अनुत्तीर्ण होते हैं,उनमें सबसे बड़ी संख्या अंग्रेजी में अनुत्तीर्ण होने वालों की है। भारत के बाजारों में चमचमाते अंग्रेजी के नामपटों को देखकर लगता है कि भारत अभी भी अंग्रेजों का ही गुलाम है। अगर आप बैंकों में जाकर देखें तो मालूम पड़ेगा कि लगभग सभी खातेदारों के दस्तखत अंग्रेजी में हैं। आपका नाम हिंदी में है, फिर हस्ताक्षर अंग्रेजी में क्यों है ? यदि नकल ही करना है तो पूरी नकल कीजिए। अपना नाम भी आप चर्चिल या जाॅनसन क्यों नहीं रखते ? नकल भी अधूरी ? हिंदी कभी राजभाषा बन पाएगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता लेकिन वह लोकभाषा बनी रहे,यह बहुत जरुरी है। राजभाषा वह तभी बनेगी, जब हमारे नेतागण नौकरशाहों की नौकरी करना बंद करेंगे। हमारे नेता मत और नोट में ही उलझे रहते हैं। उन्हें शासन चलाने की फुर्सत ही कहां होती है। यदि देश में कोई सच्चा लोकतंत्र लाना चाहे तो वह स्वभाषा के बिना नहीं लाया जा सकता। दुनिया के जितने भी शक्तिशाली और मालदार राष्ट्र हैं,उनमें विदेशी भाषाओं का इस्तेमाल सिर्फ विदेश व्यापार,कूटनीति और शोध-कार्य के लिए होता है लेकिन भारत में आपको कोई भी महत्वपूर्ण काम करना है या करवाना है तो वह हिंदी के जरिए नहीं हो सकता। हिंदी-दिवस इसीलिए एक औपचारिकता बनकर रह गया है।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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