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`आत्मजा`

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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आत्मजा खंडकाव्य से अध्याय-७

कहते यों बह पड़ीं दृगों से,
अविरल दो मोटी धाराएँ
निकल पड़ी ज्यों तोड़ स्वयं ही,
पलकों की तमसिल काराएँl

तारों-सी हो चली शान्त वह,
सागर-सी गम्भीर प्रभाती
नीरव नभ-सी मूक,किन्तु थी,
नहीं हृदय में पीर समाती।

हँसने पर कर लिया नियंत्रण,
मुस्कानों तक सीमा बाँधी
आ न जाय उस पर,डरती थी,
तीखी अफवाहों की आँधी।

चुभने शूल लगे पैरों में,
दौड़-दौड़कर चलना भूली
चंचलता चढ़ गई स्वयं ही,
कटु उलाहनाओं की शूली।

सोचा करती जाने क्या-क्या,
बैठ कक्ष में नित एकाकी
सपने जाने कौन जोड़ती,
कौन घटाती एवं बाकी।

देख प्रभाती में परिवर्तन,
माँ को चिन्ता लगी सताने
खोजा करती मुख पर उसके,
भाव सदा जाने-पहचाने।

कभी पूछ लेती फुसला कर,
बेटी,क्यों उदास तू रहती
क्या दु:ख व्याप्त हुआ अन्तर में,
क्यों न कभी माता से कहती।

झुँझला कर कहती वह माँ से,
माँ क्यों पीछे पड़ती मेरे
मैं हूँ स्वस्थ और अति सुख में,
मुझे न कोई चिन्ता घेरे।

माँ का हृदय मानता कैसे,
शंका जब उसमें आ बैठी
रही घुमड़ती काले घन-सी,
जब तक नीर न बरसा बैठी।

बोली प्यार लुटाती उस पर,
चिन्ता मत कर प्यारी बेटी
तेरा ब्याह रचाऊँगी मैं,
छानूँगी यह दुनिया सारी।

लाऊँगी प्यारा-सा गुड्डा,
होगा जो तुझसे भी सुन्दर
आयेगा दूल्हा बन,तुझको,
ले जायेगा दुल्हन बना कर।

भूल गई माँ वो दिन बीते,
जब वह भी थी बेटी केवल
प्यार पलोटी मात-पिता की,
अति अबोध अति निश्छल चंचल।

अब अनुभव की बनी पिटारी,
क्या जाने बेटी की ममता
अब वह केवल माँ है उसकी,
क्या माँ-बेटी में अब समता।

कैसा लगता घर बाबुल का,
कैसी होती उसकी छाया
पूछे कोई माँ बेटी से,
बेटी बन बेटी की माया।

छोड़ चुकी जो माँ बचपन को,
पीछे कहीं सुदूर समय के
क्या जाने वह कैसे होते,
नन्हें भाव अबोध हृदय के।

माँ के अनुभव पढ़ कर बेटी,
बन जाये माँ जैसी ज्ञानी
यही चाहती हर माँ अब तो,
क्रमश: बेटी हो न सयानीll

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। 
समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता,गीत,गजल,कहानी,लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन,अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक 
पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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