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पर्यावरण बचाओ

राधा गोयल
नई दिल्ली
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वैश्विक ताप के कारण पिछला दशक बीते सवा लाख वर्षों के किसी भी दौर से ज्यादा गर्म रहा है। बाढ़, भारी बारिश और सूखे जैसी विनाशकारी घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। हमारा वजूद खतरे में है। हम प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं, इसलिए प्रकृति हमें खत्म कर रही है।
वैश्विक तापमान का तो यह हाल है कि सबसे ठंडे कहे जाने वाले आर्कटिक और अन्य ग्लेशियर की बर्फ तक पिघल रही है।
आज जलवायु परिवर्तन मानवता के लिए अब तक की सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, धरती-आकाश और समुद्र तक… मनुष्य की विकास यात्रा में प्रदूषित हो गए हैं। हमने प्रकृति का इतना दोहन किया है कि उसका स्वरूप ही बदल गया है। कितनी की प्रजातियाँ…चाहे वो समुद्री हों या नभचर, इस वैश्विक ताप की भेंट चढ़ चुकी हैं। कहीं आग तो कहीं बाढ़ ने कहर बरपाया है। ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में वैश्विक ताप के कारण लगी आग में १ करोड़ से अधिक जानवर मारे गए थे। भारत में २०२०-२१ में जंगलों की आग की कई घटनाएँ हुईं जो इसके १ वर्ष पहले की तुलना में दोगुनी से अधिक हैं। इसी तरह से अमेरिका में २०२० से २२ तक अनेक बार कैलिफोर्निया के जंगलों में आग लग चुकी है और लाखों हेक्टेयर जंगल जल चुके हैं। लोगों को पलायन होने के लिए विवश होना पड़ा है। जब आग लगती है तो संचार व्यवस्था भी ठप्प हो जाती है। जान-माल के नुकसान का तो कोई हिसाब ही नहीं है। पाई-पाई जोड़कर बनाया आशियाना पलभर में आग या बाढ़ में तबाह हो जाता है। उन पीड़ितों के आँसुओं के सैलाब से समुद्र उफनने लगता है। आकाश और धरती कराहने लगते हैं।
जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म हो रही है, समुद्र में पानी बढ़ रहा है। जो शहर समुद्र के किनारे बसे हुए हैं, जैसे मुंबई या अन्य… वहाँ घरों में पानी घुस जाता है और अपनी चपेट में कितनों को बहा ले जाता है। कितने ही लोगों को बेघर कर विस्थापन के लिए मजबूर कर देता है। समुद्र का स्तर ऐसे ही बढ़ता रहा तो बड़ी तबाही से हम बच नहीं पाएंगे। अभी पिछले साल न्यूयार्क में २० वीं मंजिल तक समुद्र की लहरें उछाल मार रही थीं। कितने ही घर समुद्र निगल गया था।
क्या इन बेघर लोगों को राहत शिविरों में ठहराने मात्र से समस्या का समाधान हो जाएगा। क्या यही इसका उपाय है ? नहीं… हमें पर्यावरण को बचाना होगा। विकास के नाम पर विनाश को रोकना होगा। धरती का अंधाधुंध दोहन बंद करना पड़ेगा, लेकिन हम तो अभी भी कहाँ जागे हैं ? अब भी लगातार प्रकृति का दोहन कर रहे हैं। पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं, विकास के नाम पर विनाश कर रहे हैं। पेड़ों को काटा जा रहा है।
पेड़ प्राणवायु ‘ऑक्सीजन’ का उत्सर्जन करते हैं और कार्बन को सोखते हैं। पंछियों का बसेरा हैं… तो इंसानों के लिए शीतल छांव की ठौर। कई पेड़- पौधे तो इतने जीवनदायक हैं कि कई बीमारियों के इलाज में भी काम आते हैं, लेकिन आज मानव ने अपने स्वार्थ के लिए कांक्रीट के शहर बसाने के चक्कर में प्रकृति का इतना दोहन किया है कि पूरा जगत विनाश के मुहाने पर खड़ा है। नदियों का आकार निरन्तर घटता जाता है। सबसे अधिक तो विकसित देशों ने ही विकास के नाम पर पर्यावरण संकट पैदा किया है। अब विकासशील देश भी उन्हीं का अन्धानुकरण करके पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहे हैं।
हमने शहरीकरण, कृषि, खनन और बुनियादी ढाँचे के विस्तार के लिए भूमि के उपयोग को लगातार बदला और प्रभावित किया है। तालाब पाट डाले हैं। पहले के समय में वर्षा जल के संचय के लिए कुऐं,तालाब व बावड़ी बनाई जाती थीं। वो सभी पाट डालीं और पीने के पानी की किल्लत इतनी हो गई है कि शायद तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर ही होगा। कहनेको तो को चारों तरफ पानी ही पानी होगा, लेकिन पीने के लिए पानी की त्राहि-त्राहि मची होगी। ऐसा न हो, क्या उससे पहले हम नींद से नहीं जाग सकते ? हर काम के लिए सरकार पर ही निर्भर क्यों रहते हैं ? पर्यावरण प्रदूषित करने के लिए और प्राकृतिक भू-संपदा का अनावश्यक दोहन करने के लिए हम लोग भी तो जिम्मेदार हैं। जैसे-जैसे हमारी आबादी बढ़ती जाएगी, जरूरतें भी बढ़ेंगी। इन जरूरतों की पूर्ति के लिए इंसान घरती का उपयोग बदलेंगे और जंगल काटेंगे। ऐसे में सवाल यह है कि जो धरती बची है, क्या उसे बचा सकते हैं ?
प्रकृति बार-बार हमें चेतावनी दे रही है, लेकिन हम हैं कि उसको अनसुना करके विकास की होड़ में सबसे आगे निकलने की चाह में विनाश कर रहे हैं। यदि यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब मानव अपनी करनी पर पछताने के लिए जीवित ही नहीं रहेगा।
अभी भी समय है। जागो, पेड़ लगाओ, कटने से बचाओ। प्लास्टिक का प्रयोग बंद करो या बहुत जरूरत पड़ने पर ही करो। ग्रीन हाउस गैस पर लगाम लगे। प्रकृति से जितना लिया है, उतना उसे देना भी सीखें, तभी इस समस्या का निदान सम्भव है।

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