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मैं धरा

विजयसिंह चौहान
इन्दौर(मध्यप्रदेश)
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एक लंबे समय से मैं धरा तुम सब जीव-जंतु,प्रकृति,पर्यावरण को अपने में समाहित किए मजे से जी रही हूँ।
प्यारे-प्यारे मनुष्य,सुंदर फल-फूल,कल-कल संगीत सुनाती नदियां,विशाल पठार और कोमल दूब क्या नहीं संजोया मैंने अपने दामन में,सिर्फ तुम्हारे लिए! सोना-चांदी,कोयला-कथीर,खट्टे-मीठे और कड़वा स्वाद तक समेटा है,मैंने अपनी बगिया में। तुमने जैसा बीज बोया,उससे कहीं गुना ज्यादा फल दिया है, मैंने…..मगर अपने व्यक्तिगत लालच और स्वार्थ के चलते अब मेरी ओर देखने की सुध किसी को नहीं ? भीषण गर्मी से मेरा तन जलता है नीर भी अब रसातल में मिलता है। हरे-भरे वृक्ष करते थे कभी श्रृंगार। अब तपती धूप से बदन जलता है। नित नए प्रयोग करके बच्चों,तुमने विकास तो जरूर किया,मगर बोर कर करके मेरा आँचल छलनी कर दिया,पहाड़ कुतर डाले,पानी का मुँह मोड़ दिया और अब पछता रहे हो!….अभी भी वक्त है बचा लो मुझे,जीने,सँवरने दो…,ऐसा कहते-कहते धरा थर-थर कांप उठी और चक्कर खाकर गिर पड़ीl धरा की यह दशा देख-सुनकर सभागृह में हड़कम्प मच गयाl शिक्षक और सहपाठी दौड़ पड़े मंच की ओर…..चारों ओर पानी-पानी की गूंज सुनाई देने लगी…l

परिचय : विजयसिंह चौहान की जन्मतिथि ५ दिसम्बर १९७० और जन्मस्थान इन्दौर(मध्यप्रदेश) हैl वर्तमान में इन्दौर में ही बसे हुए हैंl इसी शहर से आपने वाणिज्य में स्नातकोत्तर के साथ विधि और पत्रकारिता विषय की पढ़ाई की,तथा वकालात में कार्यक्षेत्र इन्दौर ही हैl श्री चौहान सामाजिक क्षेत्र में गतिविधियों में सक्रिय हैं,तो स्वतंत्र लेखन,सामाजिक जागरूकता,तथा संस्थाओं-वकालात के माध्यम से सेवा भी करते हैंl लेखन में आपकी विधा-काव्य,व्यंग्य,लघुकथा और लेख हैl आपकी उपलब्धि यही है कि,उच्च न्यायालय(इन्दौर) में अभिभाषक के रूप में सतत कार्य तथा स्वतंत्र पत्रकारिता जारी हैl

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