रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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पृथ्वी और नभ का रिश्ता,
जैसे है प्रीत का नाता
मौसम जिसमें आता-जाता,
तब जैसे वह वसन बदलता।
दिनकर नभ का भाग्य विधाता,
स्वर्णिम दिनकर की किरणें
पूरे विश्व में ज्यों फैले,
उससे कुछ ऊर्जा, नभ ले लेता।
रात्रि प्रहर में जो चमकता,
चन्दा बनकर नभ पर दिखता
निशा की यह बन सहचरी,
तारों की बारात सजाता।
पृथ्वी को है वह समझाता,
समय एक-सा नहीं है रहता
सुख व दुःख दो पहिए जग के,
उससे ही संसार है चलता।
सूर्य का ताप जब बढ़ जाता,
बेबस धरती अकुला जाती
बिन कहे ही उसकी व्याकुलता,
नभ को कैसे पता चल जाता!
संचित जल को मेह बनाकर,
वह पृथ्वी को है भिगोता
प्रेम के रंग में दोनों रंगते,
तब हरियाली वसुधा होती।
ऐसे ही बरसात में दोनों,
नभ व भू एक हो जाते
नव पल्लव, नव फूल हैं खिलते,
बच्चे भी किलकारी भरते।
नए श्रृंगार से भू जब सजती,
नभ के मन में मंथन होता
सिहर-सिहर तब जाती पृथ्वी,
नभ तब बर्फीला फूल बरसाता।
ऐसे ही सर्दी का मौसम,
दोनों को है जड़ कर देता
कठिन समय का दिन है आया,
दोनों गुमसुम रहते, अलसाया।
तब दिनकर उनका भाग्य विधाता,
गर्मी से है राहत पहुँचाता
नहीं है नाप उसका कोई,
कितनी गर्मी वह फैलाए!
तभी तो भू क्रोधित होकर,
गर्म हवा की लू चलाए
ऐसे ही नित नोक-झोंक कर,
दोनों प्रेमी मौसम बदलाए।
मौसम का यह आना-जाना,
जीवन पृथ्वी को दे जाए।
प्रीत का ऐसा करिश्मा,
सारे जग को भा जाए॥