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राजा ही लूटे, ये कैसी अर्थ नीति ?

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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चिंतन…

वर्तमान में चुनावी कार्यकाल में सब दल दिल खोलकर जनता को प्रलोभन देकर चुनाव जीतना चाहते हैं। कोई न कोई दल सत्तारूढ़ होगा और उसके द्वारा इतनी अधिक सुविधाएँ देने की घोषणा जो बहुत अच्छा प्रयास है, पर जनता कितनी खुश और लाभप्रद होगी, यह नहीं मालूम है, लेकिन मध्यप्रदेश की जनता को जरूर अधिकतम कराधान देना होगा। सामान्य वर्ग, अन्य वर्गों का पालन करे और सरकार वाह-वाही लूटे एवं जनता लुटे, इससे सरकार कर्ज़ में डूबी है। 1qइससे विकास की रफ्तार में कमी अवश्य आती है। लाभार्थी काम चोर और पराश्रित होते हैं, इससे नपुंसक संस्कृति पुष्पित-पल्लवित होगी।
शासन का सञ्चालन अर्थ संग्रह की अपेक्षा रखता है, इसलिए राजा प्रजा से ‘कर’ लिया करता है। इस विषय में भगवान् ऋषभदेव जी ने बहुत सुन्दर नीति बताई है-
‘पयस्विन्या यथा क्षीरं अद्रोहेनोपजीव्यते।
प्रजापयेवं धनं दोहया नाति पीड़ा करैःकरैः॥’
(महापुराण १६-२५४)
जिस प्रकार दूध देने वाली गाय से उसे बिना किसी प्रकार की पीड़ा पंहुचाए दूध दुहा जाता है, उसी प्रकार राजा को भी प्रजा से धन लेना चाहिए। अति पीड़ाकारी करों द्वारा धन संग्रह नहीं करना चाहिए। बलात पूर्वक प्रजा से धन-ग्रहण करने वाले राजा व प्रजा की हानि व राजकीय अन्याय की कड़ी आलोचना की गई है-
‘प्रासाद ध्वंसनेन लोहकीलकलाभ इव लंचेन राज्ञोार्थलाभः।
राज्ञो लंचेन कार्यकरणे कस्य नाम कल्याणम॥
देवतापि यदि चौरेषु मिलति कुतः प्रजानां कुशलम।
लुन्चेनार्थो पाश्रयं दर्शयन देशं कोशं मित्रं तन्त्रं च भक्षयति॥
राज्ञोन्यैयाकरणम समुद्रस्य, मर्यादलांघनमादित्यस्य तमः पोषणमिव माचश्चपत्यभाषणमिव कलिकालविजृंभितानी॥’ (नीति वाक्यामृत ११/४०-४४)
यानि जो राजा बलात प्रजा से धन ग्रहण करता है, उसका वह अन्यायपूर्ण आर्थिक लाभ महल को नष्ट करके लोह कीले के लाभ समान हानिकारक है। अर्थात जिस प्रकार जरा से साधारण लोहे कीले के लाभार्थ अपने बहुमूल्य प्रासाद (महल) का गिराना स्वार्थ-नाश के कारण महामूर्खता है, उसी प्रकार क्षुद्र स्वार्थ के लिए लूट-मार करके प्रजा से धन ग्रहण करना भी भविष्य में राज्य-क्षति का कारण होने से राजकीय महामूर्खता है, क्योंकि ऐसा घोर अन्याय करने से प्रजा संत्रस्त होकर बगावत कर देती है। फलस्वरूप क्षति होती है।
जो राजा, प्रजा से धनादि का अपहरण करता है, उसके राज्य में किसका कल्याण हो सकता है ? किसी का नहीं।
यदि देवता भी चोरों की सहायता करने लगे, तो फिर किस प्रकार प्रजा का कल्याण हो सकता है ? नहीं हो सकता है। जब रक्षक ही पक्षक हो जाए, राजा ही लूटमार करने वालों की सहायता करने लगे, तब प्रजा का कल्याण किस प्रकार हो सकता है ?
दरअसल, रिश्वत व लूटमार आदि घृणित उपाय द्वारा प्रजा का धन अपहरण करने वाला राजा अपने देश (राज्य) में खजाना, मित्र व सैन्य नष्ट कर देता है। राजा का प्रजा के साथ अन्याय करना, समुद्र की मर्यादा का उल्लंघन, सूर्य का अँधेरा फैलाना व माता का अपने बच्चे का भक्षण करने के समान किसी के द्वारा निवारण न किया जाने वाला महाभयंकर अनर्थ है, जिसे कलिकाल का ही प्रभाव समझना चाहिए। अतएव, राजा का प्रजा के साथ अन्याय करना उचित नहीं है।
विकास के नाम पर अंधाधुंध कर लगाना और राजकीय कार्यों में बिना सुविधा शुल्क के कोई काम न होना तथा अन्याय को धन के आधार पर न्याय करना बिलकुल उचित नहीं है। पेट की सीमा है, पर पेटी की सीमा नहीं है। इसके बाद आज तक अपने साथ कुछ लेकर कोई नहीं जा पाया है, पाता है, उसके बाद भी संग्रह में लगे हैं।

हर कंपनी मर्यादित (लि.) और समिति होती है, फिर भी अर्थ के पीछे सब प्रकार के पाप करते हैं। धन पाप-पुण्य से मिलता है, पर उसमें संतोष वृत्ति रखनी होगी।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।