जसवीर सिंह ‘हलधर’
देहरादून( उत्तराखंड)
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शब्द के सौंदर्य को जग में सजाकर ही रहूँगा।
छंद की कारीगरी को आजमा कर ही रहूँगा॥
मुक्त कविता के समय में गा रहा हूँ शब्द लय में,
मुक्त तो ग्रह भी नहीं हैं व्योम गंगा के निलय में।
ज्ञान पिंगल का जमाने को बताकर ही रहूँगा,
छंद सौंदर्य को जग में सजाकर ही रहूंगा…॥
खेलता कैसे रहूँ मैं खेल ये निशि भर तिमिर का,
मुक्त होता है कभी क्या ताल से संबंध स्वर का।
सूर्य की पहली किरण का स्वाद पाकर ही रहूँगा,
छंद के सौंदर्य को जग में सजाकर ही रहूंगा…॥
सुप्त सरिता कह रहे क्यों रेत में डूबी नदी को,
भूल बैठे दासता की आज हम पिछली सदी को।
राज यह इतिहास का पर्दा उठाकर ही रहूँगा,
छंद के सौंदर्य को जग में सजाकर ही रहूँगा…॥
सत्य को कब तक ढकें हम मिथ्य के उस आवरण में,
देश का खंडन छुपा है इस अहिंसा आचरण में।
राजनीतिक खामियों का सत्य गाकर ही रहूँगा,
छंद के सौंदर्य को जग में सजाकर ही रहूँगा…॥