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संस्कृति

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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सुबह का चढ़ता-सा सूरज पूर्व से पश्चिम को था देख रहा,
मेरे गाँव का बूढ़ा काका उसको माथा था अपना टेक रहा।

मैंने तब अठखेली-सी की,
“अरे यह तो आग का गोला है
करने को प्रणाम इसे तुमको काका भला किसने बोला है ?”

तिलमिला कर काका रूआब से बोले, “यह मेरी श्रद्धा है,
यह भारत की वैदिक संस्कृति विश्व को सदा ज्ञान प्रदा है।

तुम पश्चिम की शिक्षा के मारे, दोष तुम्हारा भी कोई नहीं,
हुणों, मुगलों, गोरों ने लूटी एकाएक तो संस्कृति खोई नहीं।

तुमने पढ़ा है पाठ ही ऐसा, श्रुति स्मृति की बातें चली गई,
हमने कुछ-कुछ सुनी वही, तभी तो हममें श्रद्धा पली रही।

भारत देश की भव्य संस्कृति, वक्त-वक़्त पर थी छली गई,
हर विदेशी, लुटेरों की टोलियाँ आई, लूट कर सब चली गई।

जो हमारा था हममें वह सब छीना, अपना हममें भर दिया,
भौतिकता में फंसा कर हमको, उल्लू अपना सीधा किया।

संस्कृति समाज को बांधने वाली, डोरी का करती है काम,
आज अपनी ही संस्कृति को क्यों भूल रहा है हिंदुस्तान ?

सृष्टि के आदि ग्रंथ वेदों ने, प्राकृत हर अवयव को माना,
इसी विधि से ही तो हमने, कण-कण में ईश्वर को है जाना।

अपनी माटी, अपना देश, सुनो-सुनो सबसे सुंदर होता है।
अपनी संस्कृति-सभ्यता से बढ़कर कुछ भी तो न होता है॥”