जसवीर सिंह ‘हलधर’
देहरादून( उत्तराखंड)
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नहीं है आज सिर पे ताज,पर कल तो हमारा है।
चलें देखें समंदर का कहां दूजा किनारा है।
सजी मंदिर की मूरत बोल सकती है अगर चाहो,
लगे उसको किसी ने आज अंदर से पुकारा है।
नुकीली धार पानी की जमा पर्वत हिला देती,
सभी नदियों ने अपना रास्ता खुद ही निखारा है।
जरा-सी चोट लगती है कलेजा मात का हिलता,
खुदा ने रूप अपना नाम माँ देकर उतारा है।
कभी सोचा नहीं हमने पिताजी छोड़ जाएंगे,
लगाया बाग हाथों से,वही अब तो सहारा है।
गिने क्या पैर के छाले कभी अपने बज़ुर्गों के,
जलाकर हाथ अपने आग में हमको सँवारा है।
लपट आने लगी है रोग की पिछली सदी जैसी,
किसी ने खो दिया बापू,कहीं खोया दुलारा है।
गढ़े मुर्दे भी अपना दर्द कहते हैं सुनो ‘हलधर’,
चिता की लकड़ियाँ गायब हुई,ये क्या नज़ारा है॥