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गुल्लक का खेल

सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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गुल्लक को देखा जब मैंने
बचपन आँखों में तैर गया,
याद मुझे आयी छुटपन की
कैसा माँ ने खेल किया।

सबको गुल्लक बाँटी थी और
बोली इस पर नाम लिखो,
अपनी-अपनी सभी सम्हालो
फिर देखो यह काम करो।

पास तुम्हारे रंग पड़े हैं
इसको खूब सजाओ तुम,
जो कुछ पास में रखा है
उससे काम चलाओ तुम।

रोज़ मैं दूँगी एक चवन्नी
खर्चो चाहे बचत करो,
अगले साल खुलेगी गुल्लक
तारीख़ आज की याद करो।

जिसकी सुंदर गुल्लक होगी
उसको भी उपहार मिलेगा,
बचत हुई है जिसकी ज़्यादा
उससे ज़्यादा उसे मिलेगा।

आते-जाते तुम्हें मिले जो,
उसको भी रख सकते हो।
यह गुल्लक है बचत तुम्हारी,
कहीं खर्च कर सकते हो॥