राधा गोयल
नई दिल्ली
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मन में है विश्वास कभी दिन बहुरेंगे अपने,
शायद वह दिन आए, जब सच्चे होंगे सपने।
सबके सपने पूरे करते-करते, जीवन बीत गया है,
मेरे भी कुछ सपने होंगे, हर कोई इसको भूल गया है।
जब बच्चे छोटे थे, उनके नखरे खूब उठाती थी,
उनकी खुशियाँ मेरी खुशी थी, खुशी-खुशी सब करती थी।
अब सब बच्चे बड़े हो गए, सोचा था आराम मिलेगा,
अपनी इच्छाओं को पूरा करने का कुछ वक्त मिलेगा।
किंतु गृहस्थी एक दलदल है, जितना बाहर आना चाहूँ,
उतना ही इस दलदल अन्दर, और भी ज्यादा फँसती जाऊँ।
अपने सपने पूरा करने की चाहत तो स्वप्न बन गई,
सपनों में और चाहत में अब बुरी तरह से जंग ठन गई।
मन में है विश्वास कि हम यह जंग जीत ही जाएँगे,
सारे फर्ज़ निभाए हैं, अधिकार क्यों नहीं पाएँगे ?
अब तक केवल फर्ज निभाए, कभी नहीं माँगा अधिकार,
घर वालों ने समझ लिया था, शायद मैंने मानी हार।
समझ अब मुझे भी आ गई है, भीख में नहीं मिलते अधिकार,
फर्ज़ निभाती आई हूँ तो, हक पर भी मेरा अधिकार॥
