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स्मृतियों के झरोखे में अनमोल विद्यार्थी जीवन

डॉ. आशा गुप्ता ‘श्रेया’
जमशेदपुर (झारखण्ड)
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मेरा विद्यार्थी जीवन…..

विद्यार्थी जीवन होता है अनुपम अनमोल,
खेल-कूद सखी मित्र संग नटखट बेमोल
शिक्षा संग होये उत्तम व्यक्तित्व निर्माण,
कच्चे घडे़ संवारते मात-पिता-गुरु बोल।

सुमधुर स्मृतियाँ बचपन हृदय हँसे डोल,
हँसी-ठिठोली संग बनते हमजोली बेमोल।
बालक-बालिका भविष्य हों उत्तम नागरिक,
लौटकर ना आये विद्यार्थी जीवन अनमोल॥
यूँ तो विद्यार्थी जीवन बालकाल से जब तक आप अपने भविष्य की राह पर राह बना नहीं लेते,तब तक कहा जा सकता है, पर मैं समझती हूँ कि सदा विद्यार्थी ही हूँ। चिकित्सकीय पेशे में समय के साथ चलने के लिए,नई बीमारियाँ,ईलाज के नए तरीकों को को जानने के लिए बराबर किताबों,शोध और प्रयोग भी करना पड़ता है। इसी तरह किसी भी साहित्य की यात्रा में लिखने-रचने के लिए नई विधाओं को भी पढ़ना और समझना पड़ता है।
यह परम सौभाग्य है जब माता-पिता अपनी संतान की शिक्षा-दीक्षा के लिए प्रयत्नशील होते हैं,और मार्गदर्शक होते हैं। मेरी पढ़ाई की शुरूआत जमशेदपुर के कॉन्वेंट विद्यालय में शुरू हुई। धुंधली-सी यादें हैं,कि मुझे संगीत सीखने की इच्छा हुई, तो घर में माता सरस्वती की बहुत सुंदर-सी तस्वीर आई। संगीत के गुरु ने सरस्वती माँ की विधिवत पूजा करवाई और मेरी संगीत शिक्षा हारमोनियम में सा रे गा मा से शुरू कराई। उस समय विद्यालय जाना मुझे बहुत अच्छा लगता था। मुझे याद नहीं कि कभी भी विद्यालय नहीं जाने का कोई भी बहाना किया होगा। गर्मी या जाड़े की छुट्टियाँ मुझे पसंद नहीं आती थी। विद्यालय में मेरी कक्षा की सखियों के साथ मुझे पढ़ना,खेलना- कूदना या साथ बैठने में बहुत आनंद आता था।
बचपन में अपने पिता के साथ कुछ कारण से अस्पताल जाना पडा़। वहाँ चिकित्सक के व्यवहार आदि से बहुत प्रभावित हुई। मैंने पिता से कहा,-‘मैं बड़ी होकर डॉक्टर बनूँगी।’ मेरी माँ-पिता जी बहुत खुश हुए। हँसकर बोले-‘जरूर बनना।’
मैं घर के बगीचे के फूलों से दवाइयाँ बनाती, पतली सींकों से सुईयाँ। फिर पिता जी विदेश से चिकित्सा सेट खरीद कर लाए तो मुझे खजाना ही मिल गया। फिर हम सब सपरिवार राँची आ गए।
आज के झारखंड के विधानसभा के बडे़ होस्टल में रहने का प्रबंध हुआ। राँची में उर्सुलाइन कॉन्वेंट में चौथी कक्षा से मेरी पढ़ाई हुई। इसी समय सितारा देवी का कथक नृत्य देखा,और मैं कथक की शिक्षिका से कथक सीखने लगी। विद्यालय से लौटकर सप्ताह में ४ दिन कथक सीखती। उन दिनों नृत्य के लिए जेवर नहीं मिलते थे,तो माँ गत्ते पर सफेद या पीला कपडा़ सिलकर,सुनहरे, या सफेद चाँदी जैसे मोतियों को गढ़कर मेरे, माथे,कलाई,कमरबंद,गले का हार,बाजूबंद बनाती थी,जिसे पहनकर मैं मंचों पर कथक नृत्य प्रस्तुति करती। नृत्य की तरंगें मुझे सदा आकर्षित करती रहती हैं।
विद्यालय में मुझे बहुत आनंद आता था। वहाँ पढ़ाई के साथ अनेक गतिविधियों का भी प्रशिक्षण होता था। समाजसेवा, बागवानी,खेल-कूद,पाक कला आदि सब होता। कभी-कभी हम सहेलियाँ विद्यालय के अमरूद के पेड़ पर चढ़कर मस्ती करती। विद्यालय की अति सुनहरी स्मृतियाँ हैं-हमारे शिक्षक बड़े कुशल और नियमों वाले थे। एडवांस मैथ्स हो,या रसायन या भौतिक विज्ञान। एक आखिरी खंड काल में हम सबकी की पढ़ाई में शिक्षकों द्वारा हमारी समस्याओं को समझाने का रहता था। हमें अलग से कभी ट्यूशन की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। शिक्षकगण छात्राओं की शिक्षा के लिए समर्पित रहते थे।
मेरे पिता जी राष्ट्रीय स्तर पर कवि सम्मेलनों और मुशायरा का आयोजन करवाते रहते थे, जिसमें राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’, गोपाल नीरज,काका हाथरसी जैसे बडे़-बड़े कविगण आते थे। चौथी कक्षा से ही पिता के साथ मंच पर बैठती,और उनके काव्य पाठ से बहुत ही मुग्ध होती। कविता के प्रति मेरी रूचि-जागरूकता की नींव इसी समय गहरी बैठ गई। इसी समय से कुछ लिखने का प्रयास करती। हमारे हिंदी के गुरु पांडेय जी को भी अपनी छोटी-छोटी कविता दिखाती, और प्रोत्साहन पाती।
कभी-कभी पांडे गुरू जी हम छात्राओं के आग्रह पर कहानियाँ सुनाते,पर हमारी प्राचार्या बहुत ही सतर्क और कठोर थी। दबे पाँव कक्षा के पिछले दरवाजे से आकर पीछे की सीट पर बैठ जाती थीं। गुरु जी को जैसे लगता था कि प्राचार्या आ सकती हैं,वो कहते ‘म्याऊँ आ रही है’,और फिर हम सब अपनी हँसी-मुस्कान छुपाते,अपनी-अपनी सीट पर चुपचाप बैठ,किताबें खोल देते। ऐसी अनेक मन को गुदगुदी देने वाली कुछ बाल सुलभ विद्यार्थी जीवन की शरारतें रहीं।
शुरू से ही सुबह उठ कर पढ़ना,विद्यालय या महाविद्यालय जाना। रात को फिर डेढ़-दो घंटे पढ़ना मेरा नियम रहा। लगातार पढाई के नियम से परीक्षा समय चिंता नहीं रहती थी। मैं अपनी कक्षा में सदा प्रथम आती,और मेरी प्रिय सहेली से यह होड़ लगी रहती थी। इसके बावजूद सखी से हमारी दोस्ती सुखद रहती थी। मैं प्रथम श्रेणी में विद्यालय की नेशनल बोर्ड परीक्षा में उत्तीर्ण हुई। फिर संत जेवियर्स कॉलेज में बॉयोलोजी विषय के लिए दाखिला मिला तो अति प्रसन्न हुई,क्योंकि लक्ष्य तो चिकित्सक बनना ही था।
मेरे पिता के मित्र रामायण का अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले,गोस्वामी तुलसीदास पर शोध करने वाले,हिंदी और संस्कृत के प्रखंड विद्वान,अनेक भाषाओं को जानने वाले, बेल्जियम के रहने वाले पद्मभूषण से सम्मानित और भारतीय नागरिक संत जेवियर्स कॉलेज के प्रो. फॉदर कॉमिल बुल्के ‘रश्मि रथी’ की व्याख्या से हम विद्यार्थियों को मुग्ध कर देते थे।
डिग्री वन में मेरे विवाह की बातें होने लगी थी। मैंने इच्छा रखी कि मुझे चिकित्सा करनी है। मेरे माता-पिता इस बात की गंभीरता को समझे,और फिर मैं चिकित्सा की प्रतियोगिता के लिए आर्मड मेडिकल फोर्स,पूना और अखिल भारतीय मेडिकल प्रतियोगिता में बैठी। वहाँ मैं बाबूजी के साथ पहुँची। पोस्ट से प्रवेश पत्र आया नहीं था। मैं अति चिंतित थी,परीक्षा कैसे दूँगी। दरभंगा सेंटर में प्रवेश-पत्र बहुत परेशानी के बाद परीक्षा के ठीक आधे घंटे पहले मिला था। हार्दिक आभार है उस हाउस सर्जन का,जो समस्तीपुर से लहरियासराय दरभंगा ट्रेन यात्रा में हमको मिले थे। वो जहाँ भी हो, ईश्वर का आशीष उन्हें मिलता रहे। ईश्वर की कृपा से मैं आर्म फोर्सेस मेडिकल कॉलेज, पुणे व ऑल इंडिया मेडिकल इंट्रेंस दोनों में उत्तीर्ण हुई थी। विवाह की मेरी एक ही शर्त थी कि मुझे पढ़ने दिया जाएगा और इस इच्छा का सम्मान पति और मेरे श्वसुर पिता ने किया। और इस तरह विद्यार्थी जीवन में मेरे पति का प्रवेश और मेडिकल प्रतियोगिता में सफलता २ अनमोल सुंदर संजोग मेरे जीवन में आए। मेरे न्यूरो मनोचिकित्सक पति डॉ. अनिल कुमार गुप्ता,मेरे श्वसुर पिता और मेरे माता-पिता के त्याग-सहयोग से मेरी एम.बी.बी.एस की लंबी पढ़ाई शुरू हुई। बारह साल तक पूरी पढा़ई और पति का पेशा करना,फिर आगे एम.डी. करना,फिर मेरा पी.जी. करना,इन लक्ष्यों के लिए धैर्य,त्याग,कर्म और विरह के साथ चलते हुए पूरा करना…ये अनुभव हृदय में जीवित हैं। इस तरह बचपन के सुंदर विद्यार्थी जीवन की यात्रा पर चलते हुए मेरे चिकित्सक विशेषज्ञ बनने का जीवन का एक सुंदर लक्ष्य पूरा हुआ।

परिचय- डॉ.आशा गुप्ता का लेखन में उपनाम-श्रेया है। आपकी जन्म तिथि २४ जून तथा जन्म स्थान-अहमदनगर (महाराष्ट्र)है। पितृ स्थान वाशिंदा-वाराणसी(उत्तर प्रदेश) है। वर्तमान में आप जमशेदपुर (झारखण्ड) में निवासरत हैं। डॉ.आशा की शिक्षा-एमबीबीएस,डीजीओ सहित डी फैमिली मेडिसिन एवं एफआईपीएस है। सम्प्रति से आप स्त्री रोग विशेषज्ञ होकर जमशेदपुर के अस्पताल में कार्यरत हैं। चिकित्सकीय पेशे के जरिए सामाजिक सेवा तो लेखनी द्वारा साहित्यिक सेवा में सक्रिय हैं। आप हिंदी,अंग्रेजी व भोजपुरी में भी काव्य,लघुकथा,स्वास्थ्य संबंधी लेख,संस्मरण लिखती हैं तो कथक नृत्य के अलावा संगीत में भी रुचि है। हिंदी,भोजपुरी और अंग्रेजी भाषा की अनुभवी डॉ.गुप्ता का काव्य संकलन-‘आशा की किरण’ और ‘आशा का आकाश’ प्रकाशित हो चुका है। ऐसे ही विभिन्न काव्य संकलनों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में भी लेख-कविताओं का लगातार प्रकाशन हुआ है। आप भारत-अमेरिका में कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्ध होकर पदाधिकारी तथा कई चिकित्सा संस्थानों की व्यावसायिक सदस्य भी हैं। ब्लॉग पर भी अपने भाव व्यक्त करने वाली श्रेया को प्रथम अप्रवासी सम्मलेन(मॉरीशस)में मॉरीशस के प्रधानमंत्री द्वारा सम्मान,भाषाई सौहार्द सम्मान (बर्मिंघम),साहित्य गौरव व हिंदी गौरव सम्मान(न्यूयार्क) सहित विद्योत्मा सम्मान(अ.भा. कवियित्री सम्मेलन)तथा ‘कविरत्न’ उपाधि (विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ) प्रमुख रुप से प्राप्त हैं। मॉरीशस ब्रॉड कॉरपोरेशन द्वारा आपकी रचना का प्रसारण किया गया है। विभिन्न मंचों पर काव्य पाठ में भी आप सक्रिय हैं। लेखन के उद्देश्य पर आपका मानना है कि-मातृभाषा हिंदी हृदय में वास करती है,इसलिए लोगों से जुड़ने-समझने के लिए हिंदी उत्तम माध्यम है। बालपन से ही प्रसिद्ध कवि-कवियित्रियों- साहित्यकारों को देखने-सुनने का सौभाग्य मिला तो समझा कि शब्दों में बहुत ही शक्ति होती है। अपनी भावनाओं व सोच को शब्दों में पिरोकर आत्मिक सुख तो पाना है ही,पर हमारी मातृभाषा व संस्कृति से विदेशी भी आकर्षित होते हैं,इसलिए मातृभाषा की गरिमा देश-विदेश में सुगंध फैलाए,यह कामना भी है

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