नरेंद्र श्रीवास्तव
गाडरवारा( मध्यप्रदेश)
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हम,
जी
अपनी जिंदगी रहे हैं,
पर
हमारी नजर,
औरों की जिंदगी पर है
यही प्रतिस्पर्धा है…घुड़दौड़ है।
जो,न हमें
सुबह होने का,
आभास कराती है
और न ही,
शाम ढलने का।
हम आलसी,
भले ही नहीं रहे
मगर,
संतोषी भी नहीं हैं।
और…और…और,
अनगिनत आंकाक्षाओं के वशीभूत
हम अतृप्ति का बोझ लिए,
अर्जन करने में
जुट गए हैं,
अतिरिक्त…अनावश्यक।
और खपा रहे हैं,
जिंदगी के वे अनमोल पल
जो हमें मिले हैं,
मुस्कुराने के लिए
जीभर के जीने के लिए॥