डॉ. संजीदा खानम ‘शाहीन’
जोधपुर (राजस्थान)
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ऐ आसमान मैं भी कभी आफ़ताब था,
रुतबा कुछ इस कदर था कि जैसे नवाब था।
माहौल कुछ अजीब था, वो थे गुलों के बीच,
फूलों के साथ उनपे भी आया शबाब था।
नजरें बचा के मुझसे वो जाने कहाँ गए,
चेहरा बुझा हुआ था मगर बेहिजाब था।
पहले सी यूँ रमक़ नहीं, चेहरे पे कदूरत,
मिलना भी इस तरह था कि जैसे अज़ाब था।
‘शाहीन’ उनसे मिलकर बहुत ही सुकूं मिला,
मिलने का तुमको उनसे बड़ा इज़्तिराब था॥
