जसवीर सिंह ‘हलधर’
देहरादून( उत्तराखंड)
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मिला खून माटी उगाता हूँ दाने,यही साधना मैं इसी का पुजारी,
नहीं धूप देखूँ-नहीं छाँव देखूँ,पड़े पाँव छाले नहीं है सवारी।
न बेटा पढ़ा है-न बेटी पढ़ी है,नहीं आड़ कोई न कोई बसेरा,
मरूँ भूख से या चबा जाय कर्जा,नहीं रात देखूँ न देखूँ सवेरा।
न देखूँ उजाला न ओढ़ा दुशाला,फिरूँ रात भागा यही काम मेरा,
चहुँ ओर नागों की बस्ती बसी है,मुझे जो बचा ले न आया सपेरा।
करूँ आत्महत्या कि बागी बनूँ मैं,बता दो तरीका पटे ये उधारी,
मिला खून माटी उगाता हूँ दाने,यही साधना मैं इसी का पुजारी…॥
यहाँ कर्ज से कौन जीता कहाँ है,यहाँ भूख से कौन हारा नहीं है,
न नेता न मंत्री न कोई मिला है,पड़ा आन सूखा सहारा नहीं है।
उगा के भी सोना हुए भाव मिट्टी,फँसा बीच धारा किनारा नहीं है,
न आँसू न आहें न कोई गिला है,भले ही यहाँ पे गुजारा नहीं है।
बचा लो मुझे या चढ़ा डाल सूली,धरा का पुजारी नहीं मैं भिखारी,
नहीं धूप देखूँ-नहीं छाँव देखूँ,पड़े पाँव छाले नहीं है सवारी…॥
करूँ काम खेती नहीं भीख माँगूँ,कुआँ रोज खोदूँ पिऊँ रोज पानी,
चिता लेट जाऊँ कहीं भाग जाऊँ,न दाना-न पानी यही है कहानी।
कभी ना मिला दाम पूरा हमें तो,नहीं रास आई न भाती किसानी,
बता दोष मेरा बता बे-इमानी,न आया बुढ़ापा जली है जवानी।
चलें दाँव सारे न कोई दयालु,फँसा जाल पक्षी तने हैं शिकारी,
मिला खून माटी उगाता हूँ दाने,यही साधना मैं इसी का पुजारी…॥
लुटा पाग मेरा किसानी लबादा,फटी पाग देखूँ कि वादा निभाऊँ,
फँसी नाव मेरी फिरूँ बे सहारा,फटी एक धोती ये धोऊँ सुखाऊँ।
कभी रोग खाये कभी बाढ़ आये,लुटा आशियाना कहाँ से बचाऊँ,
लगाते जो नारा न देते सहारा,वही खेत खाये किसे यह बताऊँ।
घना है कुहासा बना हूँ तमासा,उड़ा फूस-छप्पर गिरी है अटारी,
नहीं धूप देखूँ-नहीं छाँव देखूँ,पड़े पाँव छाले नहीं है सवारी…॥