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सहनशीलता के संग ज़मीर की जंग

डॉ.राम कुमार झा ‘निकुंज’
बेंगलुरु (कर्नाटक)

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सहनशीलता के संग ज़मीर की जंग सदैव ही मानवजाति के पुरुषार्थ,संयम,धैर्य,साहस,आत्मबल और आत्मविश्वास की परीक्षा मानी जाती रही है। जीवन में कर्तव्य पथ पर रहते हुए मनुष्य को अनेक बाधाओं,निन्दा और अपनों द्वारा प्रदत्त अपमानों और दुःखों को सहना पड़ता है। तब लोगों के धैर्य और विश्वास डगमगाने लगते हैं। वे अपने लक्ष्य पथ से डिगने लगते हैं। उनके उत्साह,साहस और आत्मबल कमज़ोर पड़ने लगते हैं। हतोत्साहित और नित आनेवाले विघ्नों और अपमानों को देख अधिकतर लोग असहिष्णु होकर पथभ्रष्ट और प्रतिकार लेने हेतु गलत राह अपना लेते हैं। इसी समय सत्यनिष्ठ संकल्पित कर्मवीर की पहचान होती है,जो ऐसी परिस्थिति में अपनी सहनशीलता के गुण को न तजे और अंत में विजयी भी वही होता है। उदाहरणार्थ राजा हरिश्चन्द्र,राजा नल, सत्यवीर,राजा शिबि,राम का कैकेयी द्वारा राजविरत और प्रदत्त वनवास,माँ जानकी की बार-बार अग्नि परीक्षा और चरित्र पर लांछन,पांडवों की द्यूत क्रीड़ा में छल से हार और द्रौपदी का चीरहरण,भगवान् कृष्ण का शिशुपाल,जरासंध और दुर्योधन द्वारा अनवरत अपमान,सम्राट अशोक का तिरस्कार, चाणक्य का घोर अपमान,महादानी कर्ण और राजा भोज की दान परीक्षा आदि अनेक उदाहरण मानव जाति के स्वर्णिम इतिहास में सहनशीलता और स्वाभिमान या ज़मीर की रक्षा के प्रमाण हैं।
उपर्युक्त समागत परिस्थितियों में प्रतिकूल प्रकृति का होकर मनुष्य असहनशील हो जाता है। कभी- कभी वह अपने ज़मीर को भी गिरवी रख विपरीत परिस्थिति से समझौता कर लेता है और अपने व्यक्तित्व के मूल्यवान् अर्जित मानवीय और नैतिक अस्तित्व को सदा के लिए खो देता है। अतः सदैव वही मनुष्य जीवन संघर्षी ध्येय पथ पर सफल होता है,जो बुद्धि का उपयोग कर विपरीत परिस्थितियों में भी सहनशीलता की दुरूह जंग में ज़मीरियत को बचा लेता है।
वैसा व्यक्ति विपत्ति में संयम,धैर्य,उन्नति में क्षमाशील ,लोगों के बीच दक्ष प्रखर वक्ता,युद्ध के समय पराक्रमी,ख्याति पाने पर और अधिक अभिरुचि रखने वाला और कठिन बुरे समय में शास्त्र-पुराणों, सत्संगादि गुणों से युक्त मर्यादित आचार-विचार वाला होता है। वह अनेक कठिनाईयों और अवसाद विघ्नों को सहकर भी अपने स्वाभिमान या ज़मीर को नहीं छोड़ता,क्योंकि ज़मीर खो जाने का मतलब उसके जीवन का सर्वस्व लुट जाना होता है।

परिचय-डॉ.राम कुमार झा का साहित्यिक उपनाम ‘निकुंज’ है। १४ जुलाई १९६६ को दरभंगा में जन्मे डॉ. झा का वर्तमान निवास बेंगलुरु (कर्नाटक)में,जबकि स्थाई पता-दिल्ली स्थित एन.सी.आर.(गाज़ियाबाद)है। हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,मैथिली,बंगला, नेपाली,असमिया,भोजपुरी एवं डोगरी आदि भाषाओं का ज्ञान रखने वाले श्री झा का संबंध शहर लोनी(गाजि़याबाद उत्तर प्रदेश)से है। शिक्षा एम.ए.(हिन्दी, संस्कृत,इतिहास),बी.एड.,एल.एल.बी., पीएच-डी. और जे.आर.एफ. है। आपका कार्यक्षेत्र-वरिष्ठ अध्यापक (मल्लेश्वरम्,बेंगलूरु) का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आप हिंंदी भाषा के प्रसार-प्रचार में ५० से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़कर सक्रिय हैं। लेखन विधा-मुक्तक,छन्दबद्ध काव्य,कथा,गीत,लेख ,ग़ज़ल और समालोचना है। प्रकाशन में डॉ.झा के खाते में काव्य संग्रह,दोहा मुक्तावली,कराहती संवेदनाएँ(शीघ्र ही)प्रस्तावित हैं,तो संस्कृत में महाभारते अंतर्राष्ट्रीय-सम्बन्धः कूटनीतिश्च(समालोचनात्मक ग्रन्थ) एवं सूक्ति-नवनीतम् भी आने वाली है। विभिन्न अखबारों में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्यिक संस्था का व्यवस्थापक सदस्य,मानद कवि से अलंकृत और एक संस्था का पूर्व महासचिव होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी साहित्य का विशेषकर अहिन्दी भाषा भाषियों में लेखन माध्यम से प्रचार-प्रसार सह सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ है। प्रेरणा पुंज- वैयाकरण झा(सह कवि स्व.पं. शिवशंकर झा)और डॉ.भगवतीचरण मिश्र है। आपकी विशेषज्ञता दोहा लेखन,मुक्तक काव्य और समालोचन सह रंगकर्मी की है। देश और हिन्दी भाषा के प्रति आपके विचार(दोहा)-
स्वभाषा सम्मान बढ़े,देश-भक्ति अभिमान।
जिसने दी है जिंदगी,बढ़ा शान दूँ जान॥ 
ऋण चुका मैं धन्य बनूँ,जो दी भाषा ज्ञान।
हिन्दी मेरी रूह है,जो भारत पहचान॥

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