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जन्नत में बहता लहू

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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पहलगाम हमला…

ख़बर आई है-
धरती के स्वर्ग में,
शबनम की जगह बारूद बरस रहा है
गुलमोहर की टहनियों पर खून टपक रहा है,
पहाड़ियों की गोद में सोए
अट्ठाईस सपने
सिर्फ़ इसलिए तोड़ दिए गए,
कि उन्होंने ‘काफ़िर’ होना चुना था।

आम आदमी-
जिसकी पूरी दुनिया
बीबी, बच्चे और रोटी की महक से महफूज़ होती है,
उसे नहीं पता-
‘काफ़िर’ कौन होता है ?
उसे ये भी नहीं पता,
कि किसी और की जन्नत की लालसा में
उसका जीवन नर्क बना दिया जाएगा।

वो दरिंदा इंसान-
जिसकी आँखों में
७२ हूरों की परछाइयाँ हैं,
और शराब की नदी का बुलावा,
वो भूल बैठा है-
कि जन्नत किसी मासूम की लाश पर नहीं मिलती,
किताबें भी कभी रोती होंगी शायद
जब उनके अक्षरों से,
हत्या के फतवे गढ़े जाते हैं
जब प्रेम की आयतें,
नफरत की गोलियों में बदल जाती हैं।

कश्मीर के फ़रिश्ते-
जिन्होंने जख्मों को पट्टी दी,
घायल बच्चों को कंधा दिया
वे सलाम के असली हकदार हैं।
पर अफ़सोस…
फ़रिश्ते कम हैं,
और भेड़िए ज़्यादा
ये हत्याएं सिर्फ़ इंसानों की नहीं हैं-
ये उस उम्मीद की हैं,
जो कश्मीरी मुसलमान ढोता है
अपनी शिकारा, टैक्सी और खच्चरों पर
ये उस ख़ुशहाली की हैं,
जिसे बारूद के धुएँ ने घोंट दिया।

अल्लाह शायद रोया होगा-
जब नई नवेली दुल्हन के हाथों से
सिंदूर की जगह कफ़न की रेखा खींची,
जब हरा-भरा पेड़
फल देने से पहले ही
कट गया होगा,
और वो माँ…
जो बेटे के लौटने की राह देखती रही,
पश्मीना की जगह
चिथड़ों में लिपटा शव लेकर
सन्न रह गई होगी।

अल्लाह रोया होगा,
जब एक बूढ़ा बाप
अपने कंधों पर जवान लाश उठाता होगा,
और लाठी की जगह
बेटे की तस्वीर पकड़कर रोता होगा
कौन-सी किताब कहती है ये ?
कि मज़हब का नाम न मानने वालों की हत्या जायज़ है ?
या किसी कुछ वहशी से समीकरण
जो बंदूकों में ढल गए ?
अगर है-
तो फिर बुद्धिजीवियों को
वह आयत बदलनी चाहिए,
और उसमें से
इंसानियत का नया पाठ लिखना चाहिए।

अब और मत रोको,
शेरों को!
भेड़िए बहुत हो गए हैं मैदान में,
अब वक्त है-
कि इंसानियत के नाम पर
शिकार हो…
शिकारियों का,
और जन्नत
फिर से जन्नत बन सके।

हे ईश्वर…
इन शहीद आत्माओं को शांति दो,
और इस पथभ्रष्ट मानवता को
थोड़ी-सी संवेदना, थोड़ी-सी समझ,
और बहुत सारा प्रेम दे दो।
मजहबी दरिंदगी के शिकार,
सभी निर्दोष शहीदों को
अश्रुपूरित श्रद्धांजलि…॥