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जीवन और प्रकृति

हीरा सिंह चाहिल ‘बिल्ले’
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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घाट-घाट नीर वायु, शीत प्रीत रहती थी,
प्राकृतिक शीतलता, वादियाँ सजाती थीं।

मानवीय स्वार्थ बने, मिट गए दृश्य सभी,
नीर बिन बहा करे, दिखाती रेत नदी।

सूर्य किरण से दिखे,नीर सतह स्वर्ण सी,
चन्द्र किरण से वही, दिखे है रजत सी।

स्वर्ण रजत एक ही, सतह पे दिखा किए,
फर्क भोर रात भर, के नहीं सहा किए।

समझती न ज़िंदगी, सजते ही कर्म नहीं,
मानवीय धर्म-कर्म, के कहीं मर्म नहीं।

प्रकृति में जीवन की, रक्षा लक्षण रहते,
सजते ये जीवन से, तो भला क्यों मिटते।

कहकशाॅं भरी फिजाॅं, मिटती रहे वादियाॅं,
सोच रहती स्वार्थ की, प्रकृति में आंधियाॅं।

बादल भी फटते हैं, धरती खिसकती है,
पुकार करे प्रकृति, क्यों धरा लुटती है॥

परिचय–हीरा सिंह चाहिल का उपनाम ‘बिल्ले’ है। जन्म तारीख-१५ फरवरी १९५५ तथा जन्म स्थान-कोतमा जिला- शहडोल (वर्तमान-अनूपपुर म.प्र.)है। वर्तमान एवं स्थाई पता तिफरा,बिलासपुर (छत्तीसगढ़)है। हिन्दी,अँग्रेजी,पंजाबी और बंगाली भाषा का ज्ञान रखने वाले श्री चाहिल की शिक्षा-हायर सेकंडरी और विद्युत में डिप्लोमा है। आपका कार्यक्षेत्र- छत्तीसगढ़ और म.प्र. है। सामाजिक गतिविधि में व्यावहारिक मेल-जोल को प्रमुखता देने वाले बिल्ले की लेखन विधा-गीत,ग़ज़ल और लेख होने के साथ ही अभ्यासरत हैं। लिखने का उद्देश्य-रुचि है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-कवि नीरज हैं। प्रेरणापुंज-धर्मपत्नी श्रीमती शोभा चाहिल हैं। इनकी विशेषज्ञता-खेलकूद (फुटबॉल,वालीबाल,लान टेनिस)में है।