सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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महाकुम्भ के अपूर्व वैभव का, दिव्य महागान आसान नहीं,
हिंदुत्व के चरमोत्कर्ष का, उत्सव है यह खेल नहीं।
अदभुत विशाल प्रभु-भक्ति का, दूजा कोई धाम नहीं,
हिंदू-धर्म का इस धरती पर, देखा दूजा यशो-गान नहीं।
जात-पात और हैसियत से, कहीं कोई सरोकार नहीं,
छोटे-बड़े, ज्ञानी-ध्यानी में, श्रद्धा का कोई तौल नहीं।
गंगा, यमुना और सरस्वती का, आँचल मैला किंचित नहीं,
सदियों से धोए पाप सभी के, शक की कहीं गुंजाइश नहीं।
महिमा ऐसी महाकुम्भ की, भोजन की कोई कमी नहीं,
श्रद्धा से चलते भंडारे में, कोई भूखा सोए नहीं।
है मेला अघोरी-संतों का, उनके ज्ञान का ओर-छोर नहीं,
कहाँ से आते… कहाँ है जाते!, किसी को कुछ भी पता नहीं।
महिमा महान ऐ कुम्भ तेरी, गाते जुबान कभी थके नहीं।
कुछ दिन धरती पर स्वर्ग बसा, तुझसे धरा प्रयागराज धन्य रही॥