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नामुमकिन है…

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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मानव मन के मतभेदों को, धरती से मिटाना मुश्किल है
रामायण हुई, महाभारत हुई, मानव मदहोशी वैसी है।
मानव ही कहलाया कभी देव, तो कभी दानव या राक्षस
जाति-धर्म में बंटे इंसानों की, आज भी यह लड़ाई कैसी है ?

उम्मीद तो जागती है अंधेरे में, जुगनुओं की रौशनी से भी
पर उनकी टिमटिमाहट से,
मुकम्मल उजाला नहीं होता है।
लगता तो है दूर से कि मानो, टिका अम्बर क्षितिज पर ही है
पर असल में तो अम्बर को किसी ने संभाला नहीं होता है।

मुश्किल नहीं, नामुमकिन है, इस दौर में नीति समझाना
क्योंकि आज हर तरकश में, तर्कों के तीखे तीर भरे हैं।
जब पूछते हैं सब कोई, सवाल यही कि “ईश्वर कहाँ है ?”
“तुमने देखा क्या ?” ऐसे माहौल में भगवान से कौन डरे है ?

मूर्खता है आज कहना किसी, से कि भगवान से तो डरो
इतनी भी लूटपाट और अभद्रता,
बिल्कुल ठीक नहीं है।
आज हर कोई देता फिरता है, जवाब यही कि “बस करो,
यह जमाना है प्रैक्टिकल का, जिन्दगी कोई भीख नहीं है।

फिर सोचता हूँ कि होना चाहिए,
फिर से कोई महाभारत
जो बेकाबू इंसान सातवें, आसमान से जमीन पर आ जाए।
फिर से जाग उठे इन्सान के, भीतर वही पुरानी इंसानियत
आदमी फितरतों को छोड़, कर भगवान से डर खा जाए।

आज वश में नहीं है समझाइश,
चाँद-सितारों के भी शायद
आज तो फिर से दुनिया में, ज्ञान का सूरज उगना चाहिए।
मकसद नहीं है महज किसी, की जिन्दगी में उजाला लाना
कोशिश यह है कि जग में, अहम अंधकार ही डूबना चाहिए॥