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पता नहीं…

हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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‘पत्ते’ जब तक डाली पर रहते हैं,
वह बहुत खुश रहते हैं
पर सुख-दु:ख की इस बागडोर में,
वह कब डाली से टूट कर गिर जाएं-पता नहीं…।

जीवन भी इन्हीं पत्तों के समान है,
फिर क्यों हम करते हैं इतना अभिमान
अरे कब साँसें थम जाएंगी!
और यह प्राण-पखेरू उड़ जाएं- पता नहीं…।

उदित हुआ यह महिमा मंडित जगत,
क्यों भागता है इस सच्चाई से दूर ?
जीवन की यह डोर नहीं है तेरे हाथों में,
वह तो उसी ईश्वर के पास है-तुझे पता नहीं…।

मिट्टी के इस अनमोल तत्व को जान जरा,
क्योंकि इसमें तू जन्मा है और इसमें ही मिल जाएगा
यह धन-दौलत, महल व तेरा घरौंदा यहीं रह जाएगा,
क्योंकि, तू यहाँ सिर्फ मुसाफिर है- क्या यह पता नहीं…।

यह उड़ान इतनी ऊँची मत उड़ो,
ज़मीन पर निगाहें भी डाल ले ऐ मुसाफिर।
क्योंकि, काया के जाने के बाद कोई तेरा नहीं,
बस राख रह जाएगी, मिट्टी में मिल जाएगी-क्या पता नहीं…॥