कुल पृष्ठ दर्शन : 15

You are currently viewing ये कैसा फ़ैसला है ?

ये कैसा फ़ैसला है ?

अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर (मध्यप्रदेश)
******************************************

न खून बदलता है, न ऐसे रूह का रंग,
ब्याह से कोई रिश्ता नहीं होता तंग
वो जो पली-बढ़ी तेरा नाम लेकर,
कैसे हो गई पराई इक दिन में, क्यूँ छोड़ना संग ?

“बिटिया अब वही तेरा घर है”-ये कैसा फ़ैसला है ?
क्या सपनों का मोल बस एक मंडप ही मिला है ?
जब वो काँपती है चुपचाप सहकर दर्द कोई,
तो क्यों नहीं खुलता पिता का घर, मिलता हौसला है ?

क्यों ब्याह के बाद ही छूटते हैं रिश्ते ?
पिता के घर की दीवारें बन जाती हैं नसीहतें
क्या एक नए घर, साथी, सात फेरे से,
तो किसे बताए बरसों के बाबुल की चिड़िया रिसते रिश्ते ?

बड़ी बुआ-बहन की चीख़ें अब भी हैं ज़िंदा,
क्यों बेटी की आहें करती हैं शर्मिंदा ?
क्या बस डोली देना ही है फ़र्ज़ माँ-बाप का,
क्यों कहते हैं-“अब तू जान नसीब, मुर्दा रह कि ज़िंदा ?”

बेटी है, उसे ज़िंदा लौट आने का हक़ दो,
हर बेटी को मायके की भी छाँव दो
मत कहो-“हमारी इज़्ज़त का सवाल है”,
उसकी जान भी तुम्हारा खून है, ख़्याल दो।

याद रहे, बेटी पराई नहीं होती कभी,
सदा अपनी ही होती उसकी पीड़ा भी।
ब्याह हो तो भरोसे के वचन साथ दो,
अगर तकलीफ हो, तो बनना होगा सहारा भी।

समय है, पुरातन ये परम्परा अब बदली जाएगी,
दुःख हो तो बेटी, ससुराल से घर जरूर आएगी।
डर, घुटन और मौन की सज़ा मत दो उसे,
‘डोली से अर्थी…’ भूलो, साथ दो, सुख से जी जाएगी॥