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राष्ट्रभाषा की आवश्यकता क्यों ?

राधा गोयल
नई दिल्ली
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हमारे देश को आजाद हुए ७४ वर्ष हो चुके लेकिन आज तक हम अपनी मातृभाषा को राजभाषा तक नहीं बना पाए। संविधान में स्पष्ट लिखा था कि हिन्दी राजभाषा के रुप में स्थापित होगी,लेकिन अंग्रेजों के चाटुकारों ने ऐसा होने नहीं दिया। यदि उसी समय इसके प्रति सख्ती बरती जाती तो आज हिन्दी राष्ट्रभाषा और अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी होती। हमारे देश के अधिकतर राज्यों में हिन्दी बोली जाती है। यहाँ तक कि हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली दूसरी भाषा है। सब जानते हैं कि अंग्रेजों ने हमारे गुरुकुल नष्ट कर दिए थे,इसीलिए उच्च शिक्षा के लिए उन दिनों लन्दन जाना मजबूरी थी,किन्तु बाद में हमने शिक्षा के क्षेत्र में क्या प्रयास किए ? त्रियामा सूत्र लागू करना था लेकिन ३ वर्ष के बच्चों तक के लिए अंग्रेजी भाषा अनिवार्य कर दी गई। लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति का ही अनुसरण होता रहा।
आजकल के माता-पिता भी इस बात को देखकर खुश होते हैं कि उनके बच्चों को हिन्दी नहीं आती। अंग्रेजी बहुत अच्छी तरह समझ आती है। उन्हें हिन्दी में फल,फूलों या सब्जियों के नाम तक पता नहीं होते। रिश्ते केवल अंकल,आन्टी,कज़िन ब्रो और सिस तक सिमटकर रह गए हैं। ताऊ,चाचा, मामा,बुआ,मौसी जैसे सम्बोधनों से आजकल के बच्चे अपरिचित हैं।
हर राष्ट्र में राज्य की भाषा भी होती है,लेकिन एक राष्ट्रभाषा भी होती है जो पूरे राष्ट्र में बोली जाती है। जापान में जापानी लोग अंग्रेजी भाषा का बिल्कुल भी प्रयोग नहीं करते। वह अपनी जापानी भाषा ही बोलते हैं तो क्या जापान ने तरक्की नहीं की। जर्मनी में जर्मन बोली जाती है। जर्मनी तरक्की करने में किसी देश से पीछे नहीं हैं। हमारे देश ने रामायण काल से लेकर महाभारत काल में बेहिसाब तरक्की की थी। जो प्रक्षेपास्त्र आज बन रहे हैं, उनका वर्णन महाभारत काल में भी मिलता है। ब्रह्मोस मिसाइल का नाम हम आज सुनते हैं। ब्रह्मास्त्र शब्द आपने महाभारत में भी कई बार सुना होगा।आग्नेयास्त्र,वरूणास्त्र,वायवास्त्र,पाशुपतास्त्र, एकघ्नि आदि-आदि। अंग्रेज हमारे देश में आए। उन्होंने यहाँ पर हिंदी और संस्कृत सीखने के लिए मसूरी के लंडौर में एक विद्यालय की स्थापना की और वहाँ हिंदी और संस्कृत सीखी। वह स्कूल आज भी है। १०८ साल पुराने इस विद्यालय में हर साल २०० विदेशी हिंदी सीखने आते हैं।
गाना गाकर हिंदी सिखाने वाला यह देश का सबसे पुराना और अनोखा भाषा विद्यालय है। वैसे तो इस शाला में हिंदी के अलावा पंजाबी,उर्दू,संस्कृत और गढ़वाली भाषा भी सिखाई जाती है,लेकिन ८०-९० प्रतिशत हिंदी सीखने वाले ही होते हैं।
अंग्रेजों ने इसी विद्यालय में हमारे ही वेद उपनिषदों को पढ़कर अनुसंधान किए और हमारे किए गए अनुसंधानों को अपना नाम दिया।
दूसरी बात,हम आज तक भी गुलामी मानसिकता में जी रहे हैं। अंग्रेजी बोलने वालों को हम पढ़ा- लिखा समझते हैं और हिंदी बोलने वालों को भोंदू या अनपढ़। यह हमारी गुलाम मानसिकता का परिचायक नहीं तो और क्या है ? यदि हम यह सोचें कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन सकती है तो हमारी हिंदी अंतर्राष्ट्रीय भाषा क्यों नहीं बन सकती ? अफसोस! हम तो उसे राष्ट्रभाषा तक नहीं बना पाए,तो अंतर्राष्ट्रीय भाषा तो अभी दूर की बात है।
हमारे देश के अधिकतर भागों में क्या,बल्कि सभी राज्यों में हिंदी बोली और समझी जाती है। यह बात अलग है कि कुछ राज्यों में हिंदी लिखी नहीं जाती,लेकिन बोली सभी जगह जाती है और सभी समझ भी जाते हैं,लेकिन हमारी अपनी मानसिकता आड़े आती है। आजकल के माता- पिता भी अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा दिलाने में विश्वास करते हैं। उनके अपने सपने होते हैं कि बच्चा अंग्रेजी पढ़ेगा तो अच्छी शिक्षा मिलेगी। बाहर जाकर ऊँची नौकरी प्राप्त कर पाएगा। वे यह नहीं सोचते कि बच्चा विदेश में रहेगा तो क्या वापस स्वदेश आएगा ? फिर तो माता-पिता को अकेला छोड़कर परदेश में ही रहेगा। उनको सिर्फ यह समझ आता है कि बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में पढ़ाएंगे,तभी वह कुछ बन पाएंगे। सच्चाई यह है कि बच्चे न इधर के रहे हैं,न उधर के।अंग्रेजी तो सीख ली लेकिन संस्कार नदारद हैं। हिन्दी के भी न तो पहाड़े आते और न ही गिनती आती है। उनसे पूछा जाए बीस,तो पूछेंगे बीस कितने होते हैं,तो बताना पड़ता है ‘ट्वैंटी।’ यदि यही हाल रहा तो ताऊ,चाचा,बुआ जैसे रिश्ते केवल पुस्तकों तक सिमटकर रह जाएंगे। माता-पिता बड़े गर्व से कहते हैं कि हमारे बच्चों को हिंदी नहीं आती। मुझे शर्म आती है ऐसे माँ-बाप पर और उनकी ऐसी सोच पर। अरे!,जिस देश या राज्य की अपनी स्वयं की कोई भाषा नहीं होती,वह उस रूपवती भिखारिन की तरह होता है जिसकी कोई इज्जत नहीं होती।
किसी देश की भाषा ही उस राष्ट्र की पहचान है। ठीक है कि कुछ शब्द,जो हमारे रोज की आम बोलचाल की भाषा में रच-बस गए हैं,हमें उनको भी अपना लेना चाहिए,तभी हम सहज रूप से बोल पाएंगे
जरूरी है कि पाँचवी तक की शिक्षा मातृभाषा में और हिन्दी में दी जाए। छठी कक्षा से त्रिभाषा सूत्र लागू किया गया था,लेकिन ठीक तरह से अमल में नहीं लाया जा रहा। मेरा मानना है कि उच्च शिक्षा में भी १ भाषा हिन्दी अनिवार्य व २ भाषाएँ वैकल्पिक हों। यह काम पूरी ईमानदारी से होगा, तभी हमारी भाषा का गौरव अक्षुण्ण रह सकेगा।
यह नहीं कहती कि अंग्रेजी मत सीखो। सभी भाषाओं का सम्मान करती हूँ। ऐसे-ऐसे लोग भी हुए हैं जिन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था। हमारे राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन १५ भाषाएँ जानते थे। यायावर राहुल सांस्कृत्यायन को १६ भाषाएँ आती थीं। जितनी मर्जी भाषाएँ सीखो,कोई मनाही थोड़े ही है,लेकिन अपनी भाषा जरूर आनी चाहिए। जिस व्यक्ति को अपनी मातृभाषा नहीं आती…जो अपनी राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं कर सकता…किसी भी भाषा का सम्मान करे,बेमानी है।
भाषा वास्तव में सीखी नहीं जाती,अर्जित की जाती है। इसमें परिवेश की सबसे बड़ी भूमिका होती है। इसीलिए अंग्रेजी जानने के लिए माहौल बनाने की बात की जाती है,किंतु अपनी भाषा के लिए ऐसा क्यों नहीं होता ??

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