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सपनों का शहर

दीप्ति खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
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जहां रिश्तों में अपनापन हो,
हर चेहरे पर मुस्कान हो
प्रेम की भाषा बोलें सब,
नफरत की जहां जगह न हो
मेरे सपनों का शहर ऐसा हो…।

तकनीकी के नए दौर में,
जज्बात किसी के कम न हों
बस मंजिल की दौड़ न हो,
जीवन का सफ़र मजा भी हो
मेरे सपनों का शहर ऐसा हो…।

कांक्रीट की दीवारों के बीच,
थोड़ी मिट्टी की खुशबू हो
ऊँची इमारतों के साथ-साथ,
घने पेड़ की छाया हो
मेरे सपनों का शहर ऐसा हो…।

बचपन की हँसी जहां तुम न हो,
नारी हर कदम पर सुरक्षित हो।
आधुनिकता और परंपरा का,
जहां सुंदर समन्वय हो।
मेरे सपनों का शहर ऐसा हो…॥