पी.यादव ‘ओज’
झारसुगुड़ा (ओडिशा)
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जीवन में सदा ‘सम्मान’ कभी क्या,
कर्म की गति को कभी तार पाता है ?
हर कर्म का होता है हिसाब बराबर,
कर्म साथ-साथ ही सदा संग जाता है।
खाली हाथ, कौन आया इस जग में ?
गठरी पूर्वजन्म की संग-संग लाता है
ईर्ष्या, द्वेष, अपमान, सम्मान सूद संग,
संग-संग वह अपने साथ ले जाता है।
सम्मान वहाँ नहीं जहां स्वार्थ छिपा है,
स्वार्थ जहां, कब सम्मान मिल पाता है ?
‘माया’ दुरूह चक्कर में सब पड़े यहाँ,
‘आत्मा’ का सम्मान कहाँ हो पाता है ?
‘सम्मान’ आँखों का पानी है निर्मल,
कहो कौन इसे संभाल के रख पाता है ?
स्वार्थ, अहंकार के काले चश्मे से आगे,
आत्मसम्मान यहाँ कौन देख पाता है ?
श्रेष्ठ कर्म के बिना ही सम्मान इस जग में,
कहो, कितना किस काम का हो पाता है ?
बिकते हैं कागज बाजारों में यहाँ -वहाँ,
पर हर कागज कहाँ सम्मान हो पाता है ?
सम्मान देह का स्थायी कहो कब रहा,
कहो, कब आत्मा-ताप निखर पाता है ?
आत्म-प्रकाश से बढ़ के न सम्मान रहा,
क्या इससे श्रेष्ठ कोई सम्मान हो पाता है ?