डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
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नशे के रूप अनेक हैं पर,
मनुज कौन-सा अपनाता है
एक ले जाता पतन की राह,
दूजा जीवन सुलभ बनाता है।
उससे पूछो नशा सृजन का,
जिसने सृजन को शौक बनाया
डूबा रहता वह सदा सृजन में,
सृजन में ही हर सुख पाया।
कोई करता सृजन कविता का,
चित्रकारी का शौक भी पाला
नैन-नक्श क्या अदब से खींचे,
कैसा सृजन का नशा निराला।
आठ पहर वह डूबा रहता,
उड़ान कल्पनाओं की भरता
जब जी चाहे मन की बातें,
कागज पर उकेरा करता।
हृदय द्वार से निकली धारा,
स्वच्छंद बहा करती है
वर्णों को शब्दों में पिरोकर,
कुछ अर्थ कहा करती है।
सृजन का नशा वह प्याला,
जो संदेश दिया करता है
जो पीता है वह हरदम,
सृजन में ही डूबा रहता है।
सृजन से ही इस धरा पर,
आए तुलसी, बच्चन, निराला।
अपने सृजन नशे से ही,
रच डाली रामायण, मधुशाला॥