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स्वर्ण रथ

सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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मैंने देखा एक स्वर्ण रथ,
माँग रही थी जब भिक्षा
देख उसे मैं विस्मित बोली,
शायद मेरी हो अब रक्षा।

चला आ रहा था वह जैसे,
राजाओं का हो राजा
मैंने सोचा झोली मेरी,
आज भरेगा यह राजा।

सोच रही थी निकट हमारे,
आकर रुका अचानक वह रथ
नेत्र मिले थे उस राजा से,
रोक दिया था मेरा पथ।

मैंने सोचा उदित हो रहा,
मेरा भाग्य सूर्य निश्चित
मुस्काकर वह बोला मुझसे,
कैसी हो तुम कहो अपरिचित।

अपना दक्षिण हाथ बढ़ाकर,
बोला क्या तुम लाई भेंट
दे दो मुझको जो लाई हो,
करो न इसमें तनिक भी देर।

सोच रही थी अपने मन में,
कैसा यह विचित्र उपहास
एक भिखारिन के समक्ष ही,
फैला दिया किसी ने हाथ।

अपने चावल की झोली से,
सबसे नन्हीं कनी निकाली
विस्मित होकर उसे देखती,
कनी वही उसको दे डाली।

शाम ढले जब घर मैं लौटी,
झोली ख़ाली की तब देखा।
चावल की कनियों में मैंने,
सोने की एक कनी को देखा॥