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होड़ बढ़ी, खिलवाड़ किया

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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प्रकृति और खिलवाड़…

पावन प्रकृति के आँचल में जब, मानव ने खोली आँखें थी,
कितना निश्छल रहा मानव होगा ? खिलती उसकी बांछें थी।

वक्त गुजरा तो होड़ बढ़ी, उसने कुदरत से खिलवाड़ किया,
हरे-भरे और खिलते चमन को, नादान मानुष ने उजाड़ दिया।

अब रोगी काया और भोगी मानस, बाँछों में पड गई झाईं है,
धन-वैभव तो है बहुत बड़ा पर, सुख-सन्तोष पास में ना ही है।

प्रकृति महतारी जग सब जीवों की, मानव ने उसको लूटा है,
भूल गया वह मरना है इक दिन, मोह इस जग का झूठा है।

जंगल काटे, भूमि खोदी, हवा, पानी व व्योम को दूषित किया,
जोशीमठ की दरारें आज डराती, प्रकृति से खिलवाड़ किया।

काश! यूँ न रौंदता कुदरत को, खुद खुदा मान के भूल करी,
नतीजन साँसें उखड़ रही है, जवां फेफड़ों में है अब धूल भरी॥

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