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अब वैसा नहीं मायका

डॉ. अनिल कुमार बाजपेयी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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पहले-पहल जब जाते थे हम,
बढ़ जाती थी दिल की धड़कन
रह-रह कर दिखते थे सपने,
कैसे होंगे वहाँ सब अपने।

माँ-बाबूजी घर की ड्योढ़ी में,
लेते थे बढ़ कर आलिंगन
बहना का तो है क्या कहना,
मानो सदा साथ ही रहना।

भैया जाता लिपट फिर ऐसे,
बिछड़ा कई सालों से जैसे
पर अब वैसा नहीं जायका,
अब वैसा नहीं रहा मायका।

रात-रातभर बातों के दौर,
गूंजा करती हँसी चहुँओर
बार-बार फिर बनती चाय,
सोना किसी को नहीं सुहाय।

कोई जीजा के नाम से छेड़े,
सास-ससुर के सुनें बखेड़े
कोई ननंद की बात पूछता,
क्या बोलूं कुछ नहीं सूझता।

फुर्र से ऐसे दिन उड़ जाते,
फिर जाने के दिन आ जाते
पर अब वैसा नहीं जायका,
अब वैसा नहीं रहा मायका।

अब तो बदल गया संसार,
गए माँ-बाबूजी स्वर्ग सिधार
पता नहीं क्यूँ बढ़ गई दूरी,
सबकी है अपनी मजबूरी।

गले लगागा अब कौन,
जिसको देखो वही है मौन
अपने तक सब सिमट रहे हैं,
बस अपनों से लिपट रहे हैं।

घर क्यों लगता है अनजान,
सब-कुछ लगता है सुनसान।
पर अब वैसा नहीं जायका,
अब वैसा नहीं रहा मायका…॥

परिचय–डॉ. अनिल कुमार बाजपेयी ने एम.एस-सी. सहित डी.एस-सी. एवं पी-एच.डी. की उपाधि हासिल की है। आपकी जन्म तारीख २५ अक्टूबर १९५८ है। अनेक वैज्ञानिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित डॉ. बाजपेयी का स्थाई बसेरा जबलपुर (मप्र) में बसेरा है। आपको हिंदी और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-शासकीय विज्ञान महाविद्यालय (जबलपुर) में नौकरी (प्राध्यापक) है। इनकी लेखन विधा-काव्य और आलेख है।