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शब्द:अर्थ का अनर्थ

राधा गोयल
नई दिल्ली
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‘तुम जहां से गुजरे,बहार आ गई।’ हमने तो इतना ही कहा था और वो लड़ने-मरने पर उतारू हो गए।
“अरे! यह तुमने क्या लिख दिया कि ‘हम जहां से गए और बहार आ गई।’ यानी कि तुम हमारे मरने का इंतजार कर रहे थे कि हम इस जहान से गुजर जाएँ और तुम बहारों के मजे लूटो!!”
“अरे! नहीं-नहीं,हमने तो ऐसा कुछ भी नहीं लिखा । आप ऐसा क्यों सोच रहे हैं ? मरें आपके दुश्मन। हम तो आपकी सलामती की हर रोज दुआ माँगते हैं।”
“दुआ माँगते हो तो फिर यह क्यों लिखा… ‘तुम जहां से गुजरे,बहार आ गई।’ क्या मतलब है इसका ?”
“इसका मतलब है तुम जहाँ-जहाँ से गुजरे, वहाँ-वहाँ बहार आ गई। “
“लेकिन आपने ‘जहाँ’ नहीं लिखा। ‘जहां’ लिखा है।”
“ओ हो,यह सिर्फ बिंदी का फर्क हो गया। चंद्र बिंदु और अनुनासिक का फर्क हो गया। हम तो जहाँ,यहाँ,वहाँ,और न जाने कहाँ-कहाँ लिखना चाहते थे। अब हमें नहीं मालूम था कि आप ‘जहां’ का मतलब ‘जहान’ से लगा लोगे।”
“इसमें लगाना कैसा ? अरे भाई! जहां का मतलब जहान ही होता है। चंद्र बिंदु लगाओगे तभी समझ आएगा कि हम जहाँ से गुजरे,…वहाँ बहार आ गई। आपने लिखा तुम ‘जहां’ से गुजरे,बहार आ गई।”
“अरे बाबा माफ करो। माफ करो। माफ करो। अब समझ में आ गया। आगे से इस बात का ध्यान रखेंगे कि ‘जहान’ लिखना होगा तो वहाँ पर अनुनासिक लगाएंगे। ‘जहाँ’ लिखना है तो चंद्र बिंदु लगाएँगे। हमें समझ आ गया है कि,थोड़ी-सी बिन्दु की गलती से भी अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

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