डॉ. संजीदा खानम ‘शाहीन’
जोधपुर (राजस्थान)
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दर्द सीने में है जज़्बात का, कैसे रोकूं,
सिलसिला है यही हर रात का, कैसे रोकूं।
रोज़ आता है ख्यालों में वही चेहरा फिर,
एक रेला-सा है ज़ुल्मात का, कैसे रोकूं।
दिल सुलगता है मगर होंठ तो खामोश नहीं,
ज़ोर मैं अपने ख्यालात का, कैसे रोकूं।
हर तरफ़ बिखरी हैं महरूमी व तन्हाई भी,
ये असर अश्क़ की बरसात का, कैसे रोकूं।
मैंने चाहा था कि ‘शाहीन’ भुला दूं तुझको,
इक जुनूं बन गया जज़्बात का, कैसे रोकूं॥