संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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मैं और तुम थे अलग-अलग,
पता नहीं! कब और कैसे
एक हो गए, हम हो गए…,
वक्त के साथ चलते रहे
साथ-साथ एक पटरी पर,
समानांतर रेल की तरह।
एक दिन अचानक,
यह अहसास दिलाया तुमने
समानांतर का अंतर शायद,
हमारे बीच जैसे कहीं बढ़ रहा हो
कहीं मुझसे कोई गलती हो गई,
या तुम ही खुद गलती कर बैठे।
फिर भी एक गलती के लिए,
मैंने तुम्हें माफ कर दिया
अपने वजूद को भुलाकर,
अपने अस्तित्व को भुलाकर
अपने स्वत्व को भुलाकर,
क्योंकि मुझे अहसास था
नहीं छोड़ पाऊँगी तुम्हें, क्योंकि
गलती एक बार हो सकती है।
माफ करके शायद मैं ही,
मैं ही गलती कर बैठी
क्योंकि ग़लतियाँ करना तुम्हारी,
अब आदत-सी बन गई।
तुमसे केवल एक गलती हो गई थी,
लेकिन अब तुम्हारी यह आदत बन गई
तुमने मुझे एक आदत समझ लिया था,
तुम्हें लगता था मैं कहीं नहीं जा पाऊँगी
लेकिन मैं तुम्हें छोड़कर जा सकती हूँ!
सच्चाई यह थी, कि
मैं तुम्हारे साथ चीजों को
ठीक करना चाहती थी,
न कि कोई नयी शुरूआत
करना चाहती थी,
किसी नए के साथ।
वक़्त जाता रहा,
मैं तुम्हारे पास रुकी रही
इसी उम्मीद के साथ
फिर से तुम वह आदमी बनोगे,
जिसकी मैं हकदार हूँ या थी।
लेकिन तुमने यह सोचा,
वह कभी नहीं जाएगी
तुम मुझे अपमानित करते रहे,
बल्कि तुमने मुझे अपमानित
करने की आदत बना ली।
अब मैं जा चुकी हूँ,
मेरी वफादारी के साथ
मैं थक चुकी हूँ,
तुम्हारे साथ वफ़ा करते-करते
रिश्ते को सँवारने का,
संघर्ष करते-करते
हमारा रिश्ता कोई,
बिगड़ा खेल न रहा
जो सँवारा जा सके,
अब पटरियों के साथ-साथ…।
रेल भी अलग हो चुकी है,
आखिरकार थक कर…॥