डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
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कहाँ गया रिश्तों से प्रेम…?…
जीवन-मृत्यु के बीच ही,
जूझता रहता मानव जीवन
सत्य-असत्य नहीं दिखता,
भटक रहा उसका अंतर्मन।
धर्म सनातन भूल रहा जन,
भौतिक जीवन में तर्क बढ़ा
आत्मबोध का ज्ञान रहा ना,
पाप-पुण्य बीच द्वंद खड़ा।
जीवन पथ से भटका राही,
दिशा-दशा अब बदल रही
प्यार-विश्वास खत्म हुआ सब,
आसुरी प्रवृत्ति अब बढ़ रही।
ये रिश्ते-नाते, प्यार मुहब्बत,
अपने जीवन के हैं सार यही
मनचाहा जीवन हम जी लें,
है इतना भी आसान नहीं।
सहनशक्ति और क्षमाशीलता,
मानवता भी है सबने खोई
काम क्रोध और लोभ मोह में,
अंतर चेतना सबकी है सोई।
एकांकी अब जीवन गाथा,
कौन सुनेगा मन की व्यथा ?
अपने मन के राजा सब हैं,
चल पड़ी अब यही नई प्रथा।
धड़कन में जो जन बसते हैं,
जख्म और भी गहरे देते हैं
भावना घुट-घुट कर मरती,
दर्द अनकहे ही दब जाते हैं।
सिक्कों की खनक, शोर में,
रिश्ता-नाता सब सिसक रहा।
कहाँ गया रिश्तों से प्रेम ?
मन बार-बार धिक्कार रहा॥