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ढलती सांझ की लालिमा

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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ढलती सांझ की लालिमा के संग-संग,
जैसे जल जाते थे…
चिमनी की ढिबरी में दीए,
और…
जगमगा जाते थे जैसे लालटेन की रोशनी में,
बंद बस्तों से निकली किताबों के,
एक-एक अक्षर…
जल जाती थी जैसे चूल्हे में लगी लकड़ियाँ,
चढ़ जाते थे जैसे पतीलों पर अनाज के दाने
उसी तरह चढ़ती रही मैं भी,
बलिदान की अनचाही वेदियों पर
और उसी तरह जलती रही अनवरत
मैं, और…
मेरी कोमल सशक्त भावनाएं।

ढलती सांझ की लालिमा के संग-संग,
जैसे लौटते हैं चरवाहे…
कृषक और हलवाहे…
जोतकर, छींटकर, बोकर अपनी,
साँसों के रक्तबीज…
ढुलका कर अपने पसीने को,
सांझ की मखमली ओस की बूँदों से
महकती, सौंधी मिट्टी की खुशबू से,
निखारकर अपने तन को,
मुदित होता जैसे श्रमरत किसान…
उसी तरह मैं भी…
बोती हूँ, सींचती हूँ, काटती हूँ,
संजोती हूँ… कुछ सुखद स्मृतियाँ।

ढलते सांझ की लालिमा के संग-संग,
घर की देहरी से निरखती…
लुप्त होती सांझ की लालिमा में,
पक्षियों का झुंड… और
दूर क्षितिज पर टिमटिमाता अकेला
कोई तारा…
लुप्त होती सांझ की लालिमा में,
जैसे…
किसी समाधिस्थ योगिनी की योगचर्या,
लुप्त होता जीवन का एक और दिन,
और…।
सूर्य की लौ में पिघलते मेरे,
स्वप्न, स्मृतियाँ और तस्वीरें॥