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बच्चों का ई-शिक्षण,गृह विद्यालय और जरूरी सवाल…

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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कोरोना अतालाबन्दी २.० में भी विद्यालय,महाविद्यालय और शैक्षणिक संस्थाओं के खुलने की संभावना कम है,क्योंकि इनमें सामाजिक दूरी कैसे पालित हो और पढ़ाई भी चलती रहे,इस पर तमाम लोग मंथन कर रहे हैं। विद्यालय-महाविद्यालय जब भी खुलें,लेकिन कोरोना ने हमारी शिक्षा पद्धति में एक अहम बदलाव ला दिया है और वो है ई-शिक्षण तथा गृह विद्यालय का। अधिकांश राज्यों में बीते २ माह से बच्चों की ई-पढ़ाई की हो रही है। निजी और सरकारी विद्यालयों में इसे लागू किया गया है। शिक्षक ऑनलाइन बच्चों को पढ़ा रहे हैं,लेकिन वो दिखते किसी उपकरण के पर्दे पर ही हैं। शिक्षा की इस आभासी पद्धति को अब काफी हद तक स्थायी बनाने का प्रयास हो रहा है। शिक्षा पद्धति में आ रहे इस व्यवस्थागत बदलाव और उन्मुखीकरण का दूरगामी असर क्या होगा,इस बारे में कयास लगाए जा रहे हैं ? इसी के साथ गृह शिक्षण की पुरानी संकल्पना को फिर बढ़ावा देने की कोशिश भी है। इस पद्धति में बच्चे शाला न जाकर घर पर ही अध्ययन करते और स्वाध्यायी विद्यार्थी के रूप में परीक्षा में शामिल होते हैं। सोचने की बात यह भी है कि,इस तरह शिक्षित बच्चों का सामाजिक व्यवहार क्या होगा ? समाज का उनके प्रति व्यवहार क्या होगा ?,और बड़े पैमाने पर बच्चे गृह पढ़ाई करने लगे तो विद्यालयों और जिस शिक्षा पद्धति को हमने पौने २०० साल में खड़ा किया है,उसकी क्या उपयोगिता रह जाएगी ? भविष्य में विद्यालय रहेंगे भी या नहीं ?,रहेंगे तो उनका स्वरूप कैसा होगा ? ऐसे कई सवाल कोरोना संकट ने खड़े कर दिए हैं। चूंकि,शाला एक ऐसी जगह है,जो बच्चों को शुरू से सामूहिकता की सीख देती है। एकाकीपन को तोड़ना और बांटना(साझाकरण)सिखाती हैl मिल कर खेलना-कूदना,पढ़ाई करना,मनोरंजन करना आदि,लेकिन कोरोना ने इसी संकल्पना की धज्जियां उड़ा दी हैं। बच्चों की दृष्टि से सबसे कठिन काम उनकी सामाजिक दूरी है। वो एक-दूसरे से ज्यादा देर तक अलग नहीं रह सकते। बच्चे परिचय के मोहताज नहीं होते। वो खुद किसी भी माहौल में घुल-मिल जाते हैं। अपने दोस्त और खेल खुद तलाश कर लेते हैं।

चूंकि,कोरोना ने हिल-मिल कर जीने के आग्रही विद्यालयों को ही बंद कर दिया है,तो पढ़ाई पूरी करने के लिए तमाम विद्यालयों में ई-शिक्षण प्रणाली लागू की जा रही है। यहां शिक्षक,टी.वी. उद्घोषक की माफिक बच्चों को ‘सिखाती’ है। कई निजी शालाओं में इसका कड़ाई से पालन हो रहा है। साथ ही तगड़ा गृह कार्य भी दिया जा रहा है, जिससे कई बार बच्चे परेशान भी हो जाते हैं। मोबाइल या लैपटाॅप पर लगातार देखने से आँखों पर भी विपरीत असर हो रहा है। शिक्षक पढ़ा तो रहे हैं,लेकिन शिक्षक और विद्यार्थी के बीच भी वैसा ही रिश्ता बन रहा है,जैसा पारम्परिक शिक्षा पद्धति में था,अभी तय होना है।

मध्यप्रदेश के सरकारी विद्यालयों में शिक्षा विभाग ने जिला,खण्ड तथा जनशिक्षा केन्द्र स्तर पर व्हाट्सएप पर डिजिटल समूह तैयार किए हैं। साथ ही पालकगण और विषय विशेषज्ञ शिक्षकों को भी इसमें सदस्य बनाया है। इस समूह में राज्य शिक्षा केन्द्र से प्राप्त होने वाली ई-शिक्षण सामग्री को प्रतिदिन डाला जाता है,और शिक्षक,पालक तथा छात्र के बीच संवाद होता है। इसके अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी बच्चों के पाठ का प्रसारण किया जा रहा है। हालांकि,सरकारी विद्यालयों में ई-शिक्षण कितने प्रभावी ढंग से लागू हो रहा है,यह भी एक सवाल है,क्योंकि ई-शिक्षण के लिए इलेक्ट्राॅनिक उपकरण की जरूरत होती है। अर्थात स्मार्ट फोन,लैपटाॅप,कम्प्यूटर आदि। गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों के पास इनमें से कितनी सुविधाएं हैं,इसका निश्चित आँकड़ा उपलब्ध नहीं है। ई-शिक्षण और आभासी कक्षाओं के लिए पहली जरूरत नेट की उपलब्धता है और बिजली जरूरी है। ग्रामीण क्षेत्रों में दोनों की ‍दिक्कत है। अहम बात है कि ई-शिक्षण का इससे पहले शिक्षकों और बच्चों को कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया है। ऐसे में ‘कोशिश एवं त्रुटि’ के भरोसे काम ज्यादा हो रहा है,लेकिन सीबीएसई से जुड़े विद्यालयों का प्रदर्शन इस मामले में अच्छा है। जाहिर है कि परम्परागत कक्षा कक्ष को ई-कक्षा में बदलने तथा बच्चों को उसका आदी बनाने के लिए अभी काफी-कुछ करना बाकी है।

ई-शिक्षण के बरक्स दूसरी अवधारणा घर पर रह कर ही पढ़ने-पढ़ाने की है। इसे अंग्रेजी में ‘होम स्कूलिंग’(गृह विद्यालय या शाखा)कहते हैं। अपने समवयस्कों के साथ उनका रिश्ता उन शालेय बच्चों से यकीनन अलग तरह का होता है,जो हर दिन कई घंटे एक साथ सामूहिक रूप से बिताते हैं। आज के जमाने में भी कुछ लोगों ने ऐसे साहसिक प्रयोग किए हैं और बच्चों को शाला भेजने के बजाए घर पर रहकर पढ़ा रहे हैं। मेधावी बच्चों का प्रदर्शन यहां भी दूसरे बच्चों से बेहतर है। इसका अर्थ यही है कि अभिभावक ही गुरू की भूमिका भी बेहतर ढंग से निभा सकते हैं। हालांकि,सभी बच्चों पर यह लागू हो,जरूरी नहीं है। गांधी जी कहते थे कि,-“घर से बेहतर कोई स्कूल नहीं और अभिभावक से अच्छा कोई शिक्षक नहीं।” अगर कोरोना की दहशत यूं ही जारी रही तो मुमकिन है कि बहुत से पालक अपने बच्चों को शाला भेजने की जगह ‘गृह विद्यालय’ को ही तवज्जो दें।

इस बारे में नीति आयोग से जुड़े पेशेवर शिक्षाविदों का कहना है कि,अब शतकों पुराना चाक-टाॅक शिक्षण मॉडल पुराना पड़ चुका हैl इसकी जगह अब हमे बहुआयामी शिक्षा पद्धति पर ध्यान देना होगा। अर्थात गुरू-शिष्य रिश्तों में अब मानवीय सम्बन्धों से ज्यादा तकनीकी की भूमिका होगी। दरअसल,कोरोना ने हमे जीवन जीने और शिक्षण की वै‍कल्पिक पद्धतियों को अपनाने तथा इस दिशा में सोचते रहने पर मजबूर कर दिया है। ई-शिक्षण भी तब तक बहुपयोगी नहीं है,जब तक आपके पास पर्याप्त संसाधन न हों। इस काम में मोबाइल फोन एक जरूरी उपकरण है। इसी के साथ यह भी आवश्यक है कि ई-शिक्षण सर्वसमावेशी हो,जिसमें कमजोर और गरीब बच्चों की भी समुचित भागीदारी हो। बेशक ई-शिक्षण अब समय की जरूरत है और एक यांत्रिक समाज की दरकार भी,लेकिन इसे ज्यादा सहज और शिक्षक-छात्र दोस्ताना बनाने की आवश्यकता है। साथ ही इस मामले में सरकारी और गैर सरकारी विद्यालयों में विषमता भी नहीं दिखनी चाहिए।

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