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होली का हुड़दंग

राधा गोयल
नई दिल्ली
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फागुन संग-जीवन रंग (होली) स्पर्धा विशेष…

मेरे पति होली खेलने के बेहद शौकीन हैं। जब जवान थे तो बड़े सवेरे-सवेरे शोर मचना शुरू हो जाता था ‘पानी का टब भर लिया ? बाल्टियाँ भर लीं ? टेसू के फूल उबाल लिए ? गुब्बारे भर लिए ?’
होली वाले दिन नहीं,बल्कि चार दिन पहले से ही पिचकारियाँ बाहर निकल आती थीं और लोगों पर पानी भी फेंकना शुरु हो जाता था। आजकल तो पानी फेंकना वर्जित है। वैसे भी अब होली पर ठंड होती है। बच्चे तो अभी भी पानी में खूब भीगते हैं। हम जवान थे तो,हम भी पानी में खूब भीगते थे। मेरे घर के नीचे ही कम से कम १०० लोग होली पर इकट्ठा होते थे। ऑफिस से आकर मैं रोजाना रात के ११ बजे तक गुझियाँ बनाती थी। ३ दिन बनानी पड़ती थीं,तब कहीं जाकर ५०० गुझियाँ बन पाती थीं,क्योंकि नौकरी और घर के साथ एक दिन में बनाना संभव नहीं था। भल्ले भी घर में ही बनाती थी। किसी अन्य के घर के बाहर कभी भी भीड़ इकट्ठी नहीं होती थी। सब शौक से खाते थे और एक-दूसरे को रंगों से पोतते थे। बच्चे छज्जे में से पिचकारी से पानी की फुहारें(टेसू के फूलों का पानी)और गुब्बारे मारते थे। होली का पूरा मजा लेते थे। फिर बाद में हम औरतों की टोली भी निकलती थी और एक-दूसरे के घर जाकर उन्हें रंग लगाते थे।
एक समय ऐसा भी आया-जब मैं बहुत बीमार थी और गुझियाँ नहीं बना पाई। वैसे भी पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा था कि पूरी कॉलोनी में क्या सिर्फ मैं ही रह रही हूँ। पड़ोसियों को मालूम था कि ३ दिन पहले गुझियाँ बननी शुरू हो जाएंगी तो रोज शाम को कभी कोई तो,कभी कोई पड़ौसी आ जाता था और ४ गुझियाँ खाकर ही उठता था। मदद कराने का कोई मतलब नहीं था। एक बार मैंने पति से कहा कि-‘इस बार मैं गुझियाँ और भल्ले बिल्कुल नहीं बनाऊँगी। तुम बाजार से गुझियाँ ले आओ।’ पतिदेव ने कहा कि ‘नहीं बनाओगी तो त्यौहार-सा नहीं लगेगा। बाजार की गुझियाँ बिना मावे वाली मिलती हैं। खाने में मजा नहीं आएगा।’
‘कोई बात नहीं। बिना मजे के खा लेंगे,लेकिन मैं इस बार नहीं बनाऊँगी। मेरी तबीयत भी ठीक नहीं है। और गुझिया का आटा सख्त गूंथना पड़ता है, और मुझे आजकल ऐसे काम करने से चक्कर आने लगते हैं और फिट पड़ जाता है।’- मैंने कहा।
खैर जी,होली का दिन भी आ पहुँचा। नीचे हुड़दंगियों की पूरी टोली जमा हो गई। जो सामान बाजार से आया हुआ था,मैंने प्लेटों में लगा दिया और नीचे भिजवा दिया। नीचे किसी ने पति से कहा होगा कि क्या हुआ- ‘भाभी ने इस बार गुझियाँ और भल्ले नहीं बनाए ?’
‘पता नहीं,ऊपर जाकर अपनी भाभी से ही पूछ लो।’
एक आया,-‘भाभी श्री! इस बार गुझियाँ कहाँ हैं ?’
इतनी देर में दूसरा आया,- ‘भाभी श्री! भल्ले कहाँ हैं ?’
‘भाईसाहब! इस बार तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए बनाए नहीं हैं।’ दोनों बड़े मायूस से होकर नीचे चले गए। मुझे पतिदेव पर बड़ा गुस्सा आया। मालूम है कि मैंने इस बार घर में कुछ नहीं बनाया, इसके बावजूद मेरी ऐसी-तैसी कराने के लिए अपने मित्रों को ऊपर भेज दिया,लेकिन कान पकड़ लिए कि आगे से होली पर गुझियाँ और भल्ले जरूर बनाने हैं,क्योंकि सारे बड़े उदास से हो गए थे और मुँह लटक गया था।
सन् १९९५ में मेरी बेटी की शादी हुई और होली खेलने के लिए दामाद को निमंत्रण दिया। मेरी सासू माँ ने सबको चेतावनी दी कि इस बार खारी बावली से रंग बिल्कुल मत लाना। मेरा पोता-जमाई आएगा,उसको रंग मत लगाना,लेकिन जमाई तो सबसे ही बढ़कर निकला। मोहल्ले में किस- किसको उसने नहीं रंगा। वो धमाल मचाया,जिसका कोई हिसाब नहीं है। कई जेबों वाली पेन्ट पहनकर आए थे और न जाने कितने अलग-अलग तरह के रंग उसमें छिपाकर रखे हुए थे। पहले लाल रंग लगाया,फिर हरा,जामनी,काला। फिर बाथरूम में हाथ धोए और आराम से बाहर रैम्प पर आकर बैठ गए। सबने सोचा कि काले रंग के ऊपर तो कोई और रंग लग ही नहीं सकता,इसलिए सब आराम से उनके आस-पास ही झुंड बनाकर बतियाने लगे। किसी बहाने से फिर अंदर गए। जेब में से हरा सफेद रंग निकाला और काले रंग पर मल दिया और शांति से बैठ गए। फिर सफेद पर हरा,हरे पर लाल,लाल पर काला। बार-बार यही सब दोहराते रहे। पूरे पड़ौस में वो होली आज तक सब याद करते हैं।