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भीतर-भीतर जंग!

डॉ.सत्यवान सौरभ
हिसार (हरियाणा)
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उबल रहे रिश्ते सभी,भरी मनों में भांप,
ईंटें जीवन की हिली,साँस रही हैं कांप।

बँटवारे को देखकर,बापू बैठा मौन,
दौलत सारी बांट दी,रखे उसे अब कौन।

नए दौर में देखिये,नयी-चली ये छाप,
बेटा करता फैसले,चुप बैठा है बाप।

पानी सबका मर गया,रही शर्म ना साथ,
बहू राज घर-घर करें,सास मले बस हाथ।

कुत्ते बिस्कुट खा रहे,बिल्ली सोती पास,
मात-पिता दोनों कहीं,करें आश्रम वास।

चढ़े उम्र की सीढ़ियाँ,हारे बूढ़े पाँव,
आज बुढ़ापे में कहीं,ठौर मिली ना छाँव।

कैसा युग है आ खड़ा,हुए देख हैरान,
बेटा माँ की लाश को,नहीं रहा पहचान।

कोख किराए की हुई,नहीं पिता का नाम,
प्यार बिका बाजार में,बिल्कुल सस्ते दाम।

भाई-भाई से करें,भीतर-भीतर जंग,
अपने बैरी हो गए,बैठे गैरों संग।

रिश्तों-नातों का भला,रहा कहाँ अब ख्याल,
मात-पिता को भी दिया,बँटवारे में डाल।

कैसे सच्चे यार वो,जान सके ना पीर,
वक्त पड़े पर छोड़ते,चलवाते हैं तीर॥