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ख़्वाब

राजेश मेहरोत्रा ‘राज़’
लखनऊ(उत्तरप्रदेश)
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काव्य संग्रह हम और तुम से

ए काश ! तेरी जुल्फ़ें महकी हो हल्की-हल्की।
मध्यम-सी रोशनी में हो चाल बहकी-बहकी।

सागर से गहरी आँखें उसपे घटा का काजल,
झीना-सा तेरे तन पर लिपटा हवा का आँचल।

फूलों से भी हो महका खिलता बदन ये तेरा,
हो शोखियाँ कुछ ऐसी जूं खिलता हुआ सवेरा।

हो सादगी की चादर नशीले बदन पर तेरे,
फिर से ये जी उठेंगे मुरझाए हुए सवेरे।

माथे पर तेरे चंदा,आँचल में तेरे तारे,
उड़ती हुई ये रंगत तेरे रूप को संवारे।

कोयल की भी हो फीकी बोली हो तेरी ऐसी,
इतराये तू बदन पर हो शोखियाँ फिर कैसी।

मुस्कान तेरी ऐसी कलियाँ हो जैसे चटकी,
तस्वीर तेरी ऐसी उपमा हो कोई कमल की।
शायर की शायरियाँ भी होंगी न ये पूरी,
हर नज़्म शायरी की है तेरे बिना अधूरी।

ख्वाबों में ही तू रहना कहीं दूर नहीं जाना,
‘राज़’ ये सफर है भटका-सा कुछ अनजाना॥

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