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दबा हुआ हूँ,बाल-मजदूर हूँ

नताशा गिरी  ‘शिखा’ 
मुंबई(महाराष्ट्र)
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निकल गया हूँ सड़कों पर छोटी उम्र में रोटी कमाने,
‘बचपन बचाओ आंदोलन’ ढकोसले को हम न जाने।

पेंसिल पकड़ने वाले हाथ केतली पकड़ना सीख गए,
इन हाथों में बस्ते होते,नहीं जूतों की चमक सस्ते होते।

नन्हें कोमल हाथों में छाले गहनों की तरह से सजते हैं,
जिन चूड़ियों की खनक से तुम्हारे घर-आँगन खनकते हैं।

देश-विदेश जिन कालीनों से सपनों-सा हो घर सजाते,
घिस कर पूरे दिन दो जून की रोटी नहीं हम जुटा पाते।

छोटे नन्हें हाथों ने देखो बड़ा कड़ा हथौड़ा पकड़ा है,
जख्मों की परवाह नहीं,रोम-रोम कर्ज में जकड़ा है।

कहीं माँ-बाबा का साया नहीं,कहीं दवाओं के बोझ से,
दबा हुआ हूँ,बाल-मजदूर हूँ ठोकर खा खड़ा हुआ हूँ।

नहीं,जागरूकता की कमी है घर में नहीं पुरती रोटी,
बस इन बातों से रहती है हर पल आँखों में नमीं।

खेत-खलिहान से लेकर माफिया के गलियारों तक,
सस्ती विषम परिस्थिति,खुद को आजमा रहे अब तक।

तुम देख नहीं रहे दिन प्रतिदिन बढ़ते दुर्व्यवहार को,
यौन शोषण,भिक्षावृत्ति,अंगों के बढ़ते हुए व्यापार को।

तुम देखो बस सरकारी आँकड़े,उखाड़ो मुर्दे गड़े,
मज़े लो चलचित्रों में देख हमारी हीन-दीन दशा।

हर मुश्किल में तो खुद के मुकद्दर को आजमा रहे हैं,
मौन रह कर चीख़ती आँखों से अपना दर्द छिपा रहे हैं॥

परिचय-नताशा गिरी का साहित्यिक उपनाम ‘शिखा’ है। १५ अगस्त १९८६ को ज्ञानपुर भदोही(उत्तर प्रदेश)में जन्मीं नताशा गिरी का वर्तमान में नालासोपारा पश्चिम,पालघर(मुंबई)में स्थाई बसेरा है। हिन्दी-अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वाली महाराष्ट्र राज्य वासी शिखा की शिक्षा-स्नातकोत्तर एवं कार्यक्षेत्र-चिकित्सा प्रतिनिधि है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत लोगों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की भलाई के लिए निःशुल्क शिविर लगाती हैं। लेखन विधा-कविता है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-जनजागृति,आदर्श विचारों को बढ़ावा देना,अच्छाई अनुसरण करना और लोगों से करवाना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद और प्रेरणापुंज भी यही हैं। विशेषज्ञता-निर्भीकता और आत्म स्वाभिमानी होना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-“अखण्डता को एकता के सूत्र में पिरोने का यही सबसे सही प्रयास है। हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा घोषित किया जाए,और विविधता को समाप्त किया जाए।”

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