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तुम भी रहो,मैं भी-यही अहिंसा

आचार्य डाॅ. लोकेशमुनि
नई दिल्ली(भारत)

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देश एवं दुनिया में राजनीतिक परिवेश ही नहीं बदला,बल्कि जन-जन के बीच का माहौल,मकसद,मूल्य और इरादा सभी कुछ परिस्थिति और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में बदलता हुआ दिखाई दे रहा है,और यह बदलता दौर विभिन्न राष्ट्रों को नए अर्थ दे रहा है। न केवल सामान्य-जन के जीवन-स्तर में गुणात्मक सुधार आया है,बल्कि दुनिया में सभी जगह शांति,अहिंसा,अयुद्ध,अमन एवं सह-अस्तित्व की भावना स्थापित हुई है,मुझे इसका सुखद अहसास विदेश यात्राओं में होता रहा है।
देश एवं दुनिया,समूह और समुदाय में शांति रहे,सौहार्द रहे,आपसी मेल-मिलाप रहे,यह जरूरी है। कुछ राष्ट्रों एवं उनके राष्ट्रनायकों की नासमझी एवं अविवेक के कारण दुनिया में अशांति ज्यादा है,तनाव ज्यादा है,संघर्ष ज्यादा है। हर समय युद्ध एवं संघर्ष की मानसिकता में लगे रहने वाले देशों ने स्वयं के साथ-साथ सम्पूर्ण मानवता का अहित किया है। हर व्यक्ति में दो विरोधी पक्ष होते हैं-जुनून और विवेक। जुनून यानी जोश और विवेक हमारा होश, सहजीवन का भाव। ज्यादातर देश शक्ति,जोश और कामना का रास्ता चुनते हैं,लेकिन संतुलन तभी आता है,जब विवेक को थामे रहते हैं।
जिस तरह गुस्से या तैश में आए व्यक्ति के साथ तर्कसंगत बात करना मुश्किल होता है, उसी तरह बेहद भावुक व्यक्ति को भी सही कारण समझा पाना मुश्किल होता है। अमेरिकी उद्यमी गैरी वी कहते हैं,-“किसी जगह पहुंचने का जोश जब अंधा हो जाता है,तब साथ वालों के प्रति रूखे हो जाते हैं। गलत तरीके अपनाने में भी हिचकते नहीं।” जैसा,हम लगातार चीन एवं पाकिस्तान की स्थितियों में देख रहे हैं। जब जोश हावी होता है तब हम सही-सही सोच नहीं पाते। हमें लगता है कि हम सब जानते हैं और सब कर सकते हैं,पर अनियंत्रित ऊर्जा विस्फोट कर सकती है,उसे सही दिशा दिखाते रहना जरूरी होता है। होश की यह ऊर्जा यानी अहिंसा की शक्ति भारत के पास है। इसी ऊर्जा का उपयोग करते हुए भारत जटिल हालातों में भी शांति एवं अहिंसा का रास्ता अपनाता है,यह दुनिया के लिए अनुकरणीय है।
अपनी सोच,इच्छा,लक्ष्य,विचार,उत्पाद या कुछ कर गुजरने के लिए भीतर आग होना जरूरी हैै,भारत के पास वैसी ऊर्जा की कमी नहीं है। जैसा,किताब ‘विस्डम मीट पैशन’ में डैन मिलर व जेअर्ड एंगाजा लिखते हैं,-“आग खुद से नहीं जलती। उसके लिए ज्ञान और विवेक के ईंधन और ऑक्सीजन की जरूरत होती है।” हालांकि,हम एक दिन में ही समझदार नहीं हो जाते। काम करते रहने से ही अनुभव मिलते हैं,यह अनुभव हमारी समझ बनते जाते हैं और भारत इसी समझ से शक्तिशाली बना है।
दो राष्ट्र के बीच ही नहीं,बल्कि किसी भी राष्ट्र एवं समाज के भीतर भी दो होकर रहना संघर्ष में जीना है और यह आधुनिक समय की बड़ी समस्या है। इसके कारणों की खोज लगातार होती रही है। रुचि का भेद,विचार का भेद,चिंतन का भेद और क्रिया का भेद स्वाभाविक है,लेकिन जब इस तरह का भेद मनभेद बन जाता है तो संघर्ष,तनाव,अशांति घटित होती ही है। कहा जाता है कि कोई और नहीं,हम खुद ही अपने सबसे पहले दुश्मन होते हैं। हमारी समस्याएं,दूसरों की वजह से कम,हमारे अपने कारण ज्यादा खड़ी होती हैं। अब सवाल यह है कि हम अपने लिए समस्या से समाधान कैसे बन सकते हैं ? जीवन प्रशिक्षक एंड्रयूू केन कहते हैं,-“आप अपने साथ उतने ही उदार और सहयोगी बनें,वैसा ही व्यवहार करें,जैसा अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ करना पसंद करते हैं।” ऐसा करके ही हम जीवन को समस्या नहीं,समाधान बना सकते हैं।
समाज में रहते हुए भी शांतिपूर्ण जीवन जीया जा सकता है। इसके लिए अहिंसा का प्रयोग कारगर है। यदि अहिंसा का प्रयोग नहीं होता तो समाज नहीं बनता। समाज बना अहिंसा के आधार पर,उसका सूत्र है-साथ-साथ रहो,तुम भी रहो और मैं भी रहूं। या ‘तुम’ या ‘मैं’ यह हिंसा का विकल्प है। ‘हम दोनों साथ नहीं रह सकते’ यह हिंसा का प्रयोग है। जहां अहिंसा का प्रयोग होगा,वहां व्यक्ति कहेगा तुम भी रहो,मैं भी रहूं,दोनों साथ-साथ रह सकते हैं। विरोध में भी सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है।
एक-दूसरे की कमजोरी और असमर्थता को सहन करना,अल्पज्ञता और मानसिक अवस्था को सहन करना,दूसरे की कठिनाई और बीमारी को सहन करना शांति के लिए आवश्यक है। जब व्यक्ति इन सबको सहन करता है और समर्पण को जीने का अभ्यास करता है तभी परिवार,समाज,समुदाय एवं राष्ट्रों के बीच में शांति रह सकती है।

भगवान महावीर ने अहिंसा और अनेकांत का सूत्र दिया। अनेकांत का पहला प्रयोग है सामंजस्य बिठाना। दो विरोधी विचारों में सामंजस्य,दो विरोधी परिस्थितियों में सामंजस्य। यदि सामंजस्य न हो तो छोटी बात भी लड़ाई का कारण बन जाती है। यह इसलिए कि लोग सामंजस्य बिठाना नहीं जानते। अगर सामंजस्य,समर्पण,समझौता और व्यवस्था पर हम ध्यान दें तो लड़ाइयां बंद हो जाएंगी,युद्ध की संभावनाओं पर विराम लग जाएगा। आज सहिष्णुता का अर्थ गलत समझ लिया गया है। सहिष्णुता का अर्थ न कायरता है,न कमजोरी और न दब्बूपन। सहिष्णुता महान् शक्ति है। बहुत शक्तिशाली आदमी ही सहिष्णु हो सकता है और सहिष्णुता से ही शांति स्थापित हो सकती है।

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