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याद तुम्हारी आती है

अख्तर अली शाह `अनन्त`
नीमच (मध्यप्रदेश)

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जीवन पथ में बादल गगरी,
अंगारे बरसाती है।
बरखा के मौसम में तुमसे,
दूरी बहुत सताती है॥
याद तुम्हारी आती है…

बाहर बादल बरसे जब-जब,
आँखों में बरसात रहे,
सिहरन तन की कैसे मिटती,
घेरे गीली रात रहे।
टप-टप छाती पे छत टपके,
गहरे दिल पर वार करे,
राहत की चाहत में नींदें,
दुश्मन-सा व्यवहार करे।
रातें बैरन बनती,बैरन,
तन्हाई बन जाती है।
बरखा के मौसम में तुमसे,
दूरी बहुत सताती है॥
याद तुम्हारी आती है…

धरती का श्रृंगार देखकर,
मन दर्पण पगलाते हैं,
बरसाती मौसम में गुलशन,
खिलते महक लुटाते हैं।
धरती-अम्बर जब मिलते हैं,
पानी-पानी कर देते,
प्यासी धरती के दु:ख सारे,
बादल-बिजली हर लेते।
तेरे साथ गुजारे लम्हों,
की हर याद रुलाती है,
बरखा के मौसम में तुमसे,
दूरी बहुत सताती है॥
याद तुम्हारी आती है…

सावन के झूलों पे झूलें,
आरजूएं मन आँगन में,
पंख लगाकर उड़ें हसरतें,
ऊंचे नीले अम्बर में।
बाहों के बंधन का क्रंदन,
सुनने को हैं कान विकल,
आँखों की देहरी पर बैठे,
राह देखते खग निर्मल।
विरह वेदना की ‘अनंत’ ये,
लिखी लहू से पाती है।
बरखा के मौसम में तुमसे,
दूरी बहुत सताती है॥
याद तुम्हारी आती है…॥

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