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धरती की बेचैनी

डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
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हो हरित वसुंधरा….

मानव अपनी धुन में मगन,
विकास-विकास चिल्ला रहा
एक पल ना सोंचता कैसे,
अपनी हो हरित वसुंधरा !

मौसम भी रंग बदल रहा,
सूरज ताप उगल रहा
हवा में भी जहर भरा,
प्रदूषित हो रही धरा।

धरती की बेचैनी को,
बदल मौन देख रहा
चाँद भी सोंच रहा,
मानव को क्या हो रहा ?

खड़ी हो रही इमारतें,
वृक्ष काटे जा रहे
पहाड़ भी तप रहा,
नदी-तालाब सूख रहे।

वीरान बाग-बगीचे हुए,
कलियाँ भी रंग खो रही
लताएँ भी आपस में,
लिपट-लिपट रो रही।

मानव विकास में मगन,
भविष्य का ना सोंच रहा।
मंडरा रहा संकट बादल,
कैसे हो हरित वसुंधरा ??