संगोष्ठी
संवाद,समन्वय और सदभाव से बनेगी बात- अनिल जोशी
हैदराबाद(तेलंगाना)।
अंग्रेजी को छोड़ भारत में सभी भाषा-बोलियॉं संकट में हैं। कतिपय कारणों से हमारे यहॉं भाषा और बोली में एक वैचारिक द्वंद, मतभेद सामने आता रहा है। दक्षिण की बोलियों को हिंदी के बरक्श दुश्मन की तरह पेश किए जाने की प्रवृत्ति दिखती है। हालांकि उन क्षेत्रों में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी धीरे-धीरे ग्राह्य हो रही है। अब समय आ गया है कि संविधान की आठवीं अनुसूची की प्रासंगिकता को लेकर गंभीर विचार-विमर्श किया जाए।
मुख्य अतिथि के रूप में संगोष्ठी में शामिल वरिष्ठ पत्रकार और भाषाकर्मी राहुल देव ने यह बात कही। केन्द्रीय हिंदी संस्थान,विश्व हिंदी सचिवालय तथा अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से भाषा विमर्श की कड़ी में ‘हिंदी और उसकी बोलियों का अंतर संबंध’ विषय पर वर्धा(महाराष्ट्र)विवि के पूर्व कुलपति डॉ. गिरीश्वर मिश्र की अध्यक्षता में इस आभासी संगोष्ठी में राहुल देव ने कहा कि बोलियों को बोली न कहकर स्वभाषा कहा जाना ज्यादा तर्क संगत है।
संस्थान( हैदराबाद केंद्र) के क्षेत्रीय निदेशक डॉ. गंगाधर वानोडे ने बताया कि,संगोष्ठी का विषय परिवर्तन संस्थान की निदेशक प्रो. बीना शर्मा ने किया। आपने बोलियों के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि भाषा की समृद्धि उप-भाषाओं से है। तुलसी,सूरदास और मीरा की रचनाएँ इसकी गवाह हैं। भाषा का सम्यक विकास तभी संभव है जब बोलियॉं भी फले-फूलें।
अध्यक्ष डॉ. मिश्र ने कहा कि बहुभाषिकता भारत की पहचान रही है। बोलियों के मामले में भारत एक संपन्न देश है। हमारी बोलियों में भाषा बनने का तत्व विद्यमान है। अंग्रेजों ने अपनी भाषा का विस्तार हमारे देश में किया,लेकिन दुर्भाग्यवश आजादी के बाद देश में अपनी भाषा को लेकर गंभीर काम नहीं हुआ। इसी का नतीजा है कि आज आजादी का हम अमृत महोत्सव मना रहे हैं लेकिन अंग्रेजी भाषा सबसे ऊपर बैठी हुई है। श्री मिश्र ने कहा कि,१९३५ में गॉंधी जी ने राष्ट्र भाषा के रूप में हिंदी की वकालत की थी। उन्होंने कठोर वक्तव्य देते हुए कहा था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए कुछ बोलियों को कुर्बानियॉं भी देनी पड़े तो उन्हें देनी चाहिए। डॉ. मिश्र ने कहा कि,इस मोर्चे पर भी बहुत काम करने की जरूरत है।
विशिष्ट वक्ता के तौर पर परिषद के मानद निदेशक नारायण कुमार ने बोलियों की महत्ता को प्रमुखता से रेखांकित करते हुए कहा कि जिस तरह से हाथ, पैर,नाक,कान के बिना शरीर की कल्पना नहीं की जा सकती उसी तरह बोलियों के अभाव में भाषा का विस्तार नहीं हो सकता। भाषा के लिए केवल सरकार और रोजगार ही आवश्यक तत्व नहीं हैं, बल्कि भाषा के लिए सबसे जरूरी संस्कार है। सभी बोलियॉं महत्वपूर्ण हैं।
मुख्य वक्ता के रूप कलकत्ता के डॉ. अमरनाथ ने ग्रियर्सन को उल्लेखित करते हुए कहा कि पहाड़ में जो एवरेस्ट है,वह भाषा और जो छोटी पहाड़ियाँ वे बोलियॉं हैं। अगर पहाड़ियों को हटा दिया जाए तो क्या एवरेस्ट बचा रह सकता है! उन्होंने कहा कि भाषा और बोली में कोई तात्विक अंतर नहीं है। खड़ी बोली आज भाषा बन गई है।
इस क्रम में महात्मा गॉंधी संस्थान मॉरीशस के भोजपुरी लोक संस्कृति विभाग के अध्यक्ष डॉ. अरविन्द बिसेसर ने कहा कि मॉरीशस में हिंदी की भूमिका वहॉं बड़ी बहन की है।
सम्पादक राकेश पाण्डेय ने कहा कि भाषा और बोली के बीच वही संबंध है जो भवन का उसकी बुनियाद से है।
कार्यक्रम का समाहार करते हुए केन्द्रीय हिंदी शिक्षण मण्डल के उपाध्यक्ष अनिल शर्मा ‘जोशी’ ने कहा कि भाषा और बोलियों के अंतर संबंध को सकारात्मक दिशा में ले जाने के लिए पारस्परिक संवाद समन्वय और सद्भावना बहुत जरूरी है। भारत भी भाषा के मोर्चे पर उपनिवेशवादी सोच से बाहर नहीं आ सका है। अंग्रेजी का अब भी बोल-बोला है। श्री जोशी ने कहा कि हमारी भाषाऍं आज एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धी बन गई है। ऐसे में यह जरूरी है कि पारस्परिक समन्वय और संवाद को हम महत्व दें,ताकि भाषा संस्कृति और भारतीयता को मजबूती मिले।
संचालन विजय मिश्र ने किया। संयोजन जवाहर कर्नावट व संध्या सिंह ने किया। सुनीता पाहुजा (मॉरीशस)ने धन्यवाद ज्ञापित किया।