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अनुरोध

रश्मि लहर
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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कभी अकस्मात्,
निष्प्राण हो जाएगी
मेरी देह!
एक दीर्घ नि:श्वास लेकर,
स्थान बदल लेंगे सपने
बस दिखावा करते
मिलेंगे,
कुछ विषैले ‘अपने!’

उन तथाकथित अपनों के संग,
न करना मुझे निर्वस्त्र
न छूने देना उन्हें,
मेरा कोई अंग।

सुनो बच्चों!,
यदि अकस्मात्
मौन हो जाऊॅंगी मैं,
तो विकल होकर
मुझे पुकारने लगेगा,
मेरी आहट को टटोलता
मेरे पाॅंवों की छुवन पर थिरकता,
मेरा ऑंगन!

सुनो बच्चों!,
मुझे मत ले जाना वहाॅं
जहाॅं टकटकी लगाकर,
पथ निहारती होगी
स्वास्तिक सजे गमले की तुलसी!

जहाॅं प्रतीक्षारत होंगे,
पवित्र ग्रंथों के असंख्य पन्ने
आरती की पावन धुन पर,
ठुमकती घंटी..
और,
ढोलक की थाप के साथ
गुनगुनाते मॅंजीरे!

जहाॅं फड़फड़ाते होंगे,
दाना खाने वाले
ढेरों पक्षी!
जहाॅं मेरे बिना चुप बैठी होगी,
वो कोयल…वो तितली…वो बच्ची!

सुनों बच्चों,
मेरे कारण मत सहना
आग की लपटों की गर्मी को,
बस! महसूस करना
मेरी उम्रदराज,
पलकों की नमी को।

मान लेना,
मेरा यह अनुरोध कि
मेरी देह को न जलाना…
उसको शिक्षा के काम में लाना।

और, हाॅं…
व्यर्थ में रोने की जगह,
याद रखना
मेरी हर सीख को,
मेरे कठिन संघर्ष को
मेरी हर मजबूत जीत को।

सुनो बच्चों!,
मेरे न रहने पर
तुम सब,
‘एक’ रहना!
और हो सके तो…,
अपने पापा को
सहेज लेना!!