कुल पृष्ठ दर्शन : 236

You are currently viewing अब करूँगी मन की

अब करूँगी मन की

राधा गोयल
नई दिल्ली
******************************************

मैं जब भी लिखने बैठती हूँ पेशानी पर बल पड़ते हैं,
गुस्से से भौंहें तन जातीं और क्रोध के भाव उमड़ते हैं
क्यों मेरा कुछ लिखना तुमको बिल्कुल भी नहीं सुहाता है ?
जब भी मैं कुछ लिखने बैठूँ,क्यों तुमको गुस्सा आता है ?

कर्तव्य विमुख मैं नहीं हुई,सारे कर्तव्य निभाए हैं,
तेरे संग कदमताल करते-करते सब फर्ज़ निभाए हैं
फिर भी क्यों मेरा लिखना तुमको बिल्कुल नहीं सुहाया है ?
जब भी कुछ लिखने बैठूँ,तब तब तानों से नहलाया है।

अपनी पत्नी की थोड़ी भी तारीफ़ नहीं भाती तुमको,
माथे पर तनी हुई ‘सिलवट’, हर वक्त रूलाती है हमको
तेरी सारी इच्छाओं पर,अपने सुख सभी बिसार दिए,
तेरी इच्छाओं के ऊपर,अपने सब स्वप्न न्यौछार दिए।

हरदम तेरी ही खुशियों की परवाह में जीती आई हूँ,
अपनी खुशियों को मार-मार,जीते जी मरती आई हूँ
मर-मर कर जीना सीख लिया,जी-जीकर मरना सीख लिया,
फिर भी न तसल्ली हुई तुम्हें,अब मैंने जीना सीख लिया।

समझौते करती आई हूँ,कितने समझौते और करूँ ?
अपने ख्वाबों को पूरा करने की,क्यों न परवाह करूँ।
आँखों को मनाना सीख लिया,अब दिल को मनाना बाकी है,
अब करूँगी मैं अपने मन की,बस मन को मनाना बाकी है॥

Leave a Reply