राधा गोयल
नई दिल्ली
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“राजू! हम यहाँ परदेस में आ तो गए हैं, लेकिन अब इतनी मेहनत नहीं होती। अच्छी-भली हमारी खेती की जमीन थी। खेती-बाड़ी करते थे। पता नहीं, किस झोंक में शहर में मजदूरी करने आ गए। सड़ी गर्मी में खाना भी खुद पकाना पड़ता है। फिर तपती धूप में दिन भर सर पर ईंटें और गारा ढोना पड़ता है। सोचा था मेहनत करके चार पैसे कमा लूँगा, बच्चों को पढ़ाऊँगा ताकि उनको खेतों में तपती धूप में काम ना करना पड़े, लेकिन कहाँ कुछ भी बचा पा रहा हूँ। अपने खेतों में हम जो अनाज उगाते थे, हमारे पूरे परिवार का पेट भरने लायक तो हो ही जाता था। अब तो यहाँ आधा पेट खाकर भी कुछ नहीं बच पाता तो बच्चों के लिए कहाँ से कुछ भेजूँ! सब्जियाँ, दाल सभी तो भाव खा रही हैं। सब्जी बनाने के पचड़े से बचने के लिए प्याज टमाटर से रोटी खाना चाहो तो वही कौन-सा सस्ते हैं। मैं अब यही सोच रहा हूँ कि अपने गाँव चलते हैं। वहीं मेहनत करेंगे। खेती-बाड़ी करेंगे। वहाँ कम से कम इतनी तपती धूप में तो काम नहीं करना पड़ेगा। सुबह भी ४ बजे से छाँव में काम करेंगे और शाम को भी छाँव में काम करेंगे।
किसी ने मुझे बच्चों की थोड़ी सी किताबें दी हैं। उसमें सब्जियों और फलों की बड़ी सुंदर फोटो बनी हुई हैं। उससे सब कुछ समझ में आ जाता है। मैं खुद भी पढ़ूँगा और अपने बच्चों को भी पढ़ने के लिए दूँगा। अब तो हमारे गाँव में सरकारी स्कूल भी बन गया है। कोई फीस भी नहीं देनी पड़ेगी। प्रधानमंत्री आयुष्मान कार्ड से इलाज भी मुफ्त हो जाएगा। प्रधानमंत्री आवास योजना से ढाई लाख रुपए भी मिलेंगे। उससे अपना टूटा घर बना लेंगे। कुछ सब्जियों की बेल अपने घर के पास ही लगा लेंगे। घीया तोरी, कटहल टमाटर, नींबू, हरी मिर्च, अदरक वगैरा। कम से कम खाने का जुगाड़ तो हो जाएगा और इस तरह से अपने हड्डे भी नहीं घिसने पड़ेंगे। इतनी मेहनत अपने खेतों में करेंगे तो ज्यादा अच्छा है ना।”
“ठीक सोच रहा है तू । मैं भी अब यह काम करते-करते परेशान हो चुका हूँ। पत्नी और बच्चों से दूर, सब रिश्तेदारों से दूर। कैसा जीवन है हमारा ? आ अब लौट चलें अपने उस गाँव में, उस बरगद और पीपल की छाँव में।”
