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कितने चौराहों पर

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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कितने चौराहों पर,
दिख जाती हैं
बेबस, विक्षिप्त स्त्रियाँ…
गंदे, फटे लिबास में लिपटी,
रहबरों की मुस्कान से चिढ़ती
रोती, गाती, चिल्लाती,
भूखी-प्यासी, बड़बड़ाती
हाथों में दंड और गठरी में सिमटी,
गिरती, रुकती, लड़ती, हँसती
यातनाओं से जूझती, मिटती,
मनोरंज का साक्ष्य बनीं
मन को व्याकुल कर जाती हैं,
बेबस, विक्षिप्त स्त्रियाँ।

कितने चौराहों पर,
लुट जाती हैं
बेबस विक्षिप्त स्त्रियाँ…
अट्टहास करता मानव उन पर,
संवेदनाओं से शून्य उतरकर
अर्धनग्न देह के ऊपर,
कंकड़-पत्थर की सेज पर सोकर
रक्तरंजित कर जाते हैं,
वासनाओं के पाश में आकर
अहंकार से ग्रसित है मानव,
चुन-चुन कर किरचियाँ गिराते
तन को घायल कर जाती हैं,
बेबस, विक्षिप्त स्त्रियाँ।

कितने चौराहों पर,
मिट जाती हैं
बेबस, विक्षिप्त स्त्रियाँ…
वही, जिसने जन-मन को जना,
सुबह की किरणों से, मांगी जो दुआ
स्पर्श कर चरणों की बंदिनी बनकर,
करती रही तर्पण वह लड़ कर
ममत्व से छलकता जिसका आँचल,
करुणा से रिसता जिसका जीवन
तुमने उसको ही, पागल कर छला,
चौखट पर तेरे ही हो गई वह फ़ना।
जग से विस्मृत हो जाती हैं,
बेबस, विक्षिप्त स्त्रियाँ॥