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कुछ समय तो बैठो ‘बुजुर्गों’ के पास

हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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हमारे संस्कारों में बुजुर्गों का अनुभव बहुत कारगर साबित होता है। सामाजिक परिदृश्य में देखें तो ऐसा कह सकते हैं कि बड़े-बुजुर्ग वृटवक्ष होते हैं। उनकी छत्र-छाया में हम परिजन सुखी रहते हैं, पर आज-कल परिवारों में समय अनुरूप परिवर्तन के दौर में उन्हीं बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में जाने को क्यों मजबूर कर देते हैं ? उनकी बातें हम लोगों को चुभने लगती है, लेकिन वह अनुभव की ऐसी घूंटी है, जिससे हम लोगों का जीवन संवर सकता है। अपनेपन से दूर अकेले रहने वाले परिवार दुःख-तकलीफ में आपा खो देते हैं, और नकारात्मक पहलू की और बढ़ कर गलत कदम उठा लेते हैं। उन ‘बुजुर्गों की सफेदी चाँदी-सी चमकदार होती है। उनके आशीष से हम हर मुश्किल में कभी भी नहीं घबराते हैं, पर आज-कल तो बच्चों को माता-पिता के साथ रहना पसंद नहीं है। उन्हें तो अपनी आजादी पसंद है। दादा दादी, नाना नानी और माँ-बाप का क्या करेंगे। सामाजिक विचारों में आधुनिकता व पश्चिमी सभ्यता के रंग में ना जाने कितने परिवार बदरंग हो चुके हैं। ज़िन्दगी का मोहपाश ऐसा होता है, कि माता-पिता अपने बच्चों के लिए जीवन भर संघर्ष करते हैं, और उन्हें बस २ रोटी व सुख-चैन की ही चाहत रहती है। सुबह-शाम आज-कल आधुनिक बहू उन्हें खाने के लिए भोजन नहीं देती है। वह उनके लिए बोझ लगते हैं, फिर वही वृद्धाश्रम का रास्ता ही रहता है उन लोगों के लिए। यह बहुत ग़लत बात है नौजवान पीढ़ी की अपने बड़े-बुजुर्गों के प्रति। युवा पीढ़ी को अपनी इस तरह की सोच में परिवर्तन लाना ही होगा। पुराने लोग तपती दुपहरी में छाँव की तरह होते हैं। उनका हाथ हमारे लिए हमेशा खुला रहता है। उन्होंने ही हमें पाल-पोस कर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया और अपने पैरों पर खड़ा किया।

आज-कल की युवा पीढ़ी आधुनिकता की चकाचौंध में गुलाम बन गई है। टेलीविजन, कम्प्यूटर, लेपटॉप, मोबाइल में घंटों समय खपा देते हैं, लेकिन चंद मिनट का समय अपने माता-पिता या बड़े-बुजुर्गों के साथ नहीं बिताते हैं। उन सभी की आशा यही रहती है, कि कुछ समय हमारे परिजन, बेटा-बहू, पोता-पोती हम बुजुर्गों के पास बैठे, क्योंकि जीवन का सार यही है। हमारे आदर्श व संस्कार भी यही है, कि हम बड़े-बुजुर्गों व अपने माता-पिता की सेवा करें। यह हमारा फर्ज है।