डॉ. संगीता जी. आवचार
परभणी (महाराष्ट्र)
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जल ही कल….

पीने लायक जल,
कितना बचा है धरा पर ?
फ़िकर करें हर पल,
अब इसी अहम मुद्दे पर!
लोगों की चाल-ढाल,
और बदले हैं सबके आसार
बहा रहे हैं जल,
मानो है जल निर्माण का आधार।
आबादी ने किया बेहाल,
बढ़ रही है बडी तेज रफ्तार
प्रकृति का वरदान जल,
बिक रहा है सरेआम बाजार।
वसुन्धरा का दिया जल,
बनाकर रख दिया है व्यापार
मिल नहीं रहा जल,
गरीब हो गए सब लाचार।
उसका हो गया जल,
जिसका बल है तेजतर्रार
निर्बल को नहीं जल,
दया की कोशिश है बरकरार।
कैसा जीवन बिना जल ?
मानव करो प्रकृति का ऐतबार
बचाते रहो जल,
एक बूंद भी न जाए बेकार।
भावी पीढ़ी का उज्ज्वल,
चलो कर लें हम बेड़ा पार
‘जलजला’ बन गया जल,
सुन लो माँ प्रकृति की गुहार॥