डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
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परिभाषा देखो बदल रही,
अब तो अपने समाज की
कैसे लाज बचेगी सोंचो!
अपने घर और परिवार की।
पढ़े-लिखे आगे बढ़ें बेटियाँ,
इसमें तो कोई बुराई नहीं
आजादी अच्छी है लेकिन,
उच्श्रृंखलता अच्छी बात नहीं।
बांध दुपट्टा मुखड़े पर वो,
कॉलेज कहकर जाती है
कहीं बदलती जीन्स-टॉप,
फिर होटल में देखी जाती है।
मोबाइल से प्यार है होता,
फिर होती इकरार की बात
चार दिन की चाँदनी दिखती,
उसे दिखती नहीं अँधेरी रात।
मनचला कोई दिल बहलाता,
करता झूठी दिल की बात।
सुर्ख गुलाबी सपने दिखाता,
वश में नहीं रखती जज्बात।
माँ-बाप को मूर्ख बनाती फिर,
आँखें और जुबान लड़ाती है
गैरों की मीठी बातों में आकर,
वह अपना सर्वस्व लुटाती है।
नाजों से जिसने पाला-पोसा,
नाज और नखरे उठाए हैं
अपनी जान के टुकड़े खातिर,
जानें क्या-क्या कष्ट उठाए हैं।
वर्षों के माँ-बाप के रिश्ते वो,
वो पल में दामन झटकती है
जिनकी जान से प्यारी थी वो,
अब जान की दुश्मन कहती है।
हवस के आगे सब फीका,
अक्ल की दुश्मन बनती है
चाकू से फिर गोदी जाती,
झाड़ी में फेंकी मिलती है।
नीयत ही नियति तय करती,
ये एक दिन रंग तो लाएगी।
जिसके लिए परिवार है छोड़ा,
फिर उससे भी छोड़ी जाएगी॥